बारिश के बाद बक्सों, अलमारी के कपड़ों व अन्य वस्तुओं को धूप दिखाना आवश्यक हो गया था। एक दीवार तो इतनी तर हो गई थी कि पानी दीवार से उतरकर फर्श पर फैल रहा था। उस दीवार से लगाकर एक बड़ा सूटकेस वहाँ से हटाना जरूरी था। किसी तरह खींचकर सूखी जगह ले आई और खोलकर अनुमान लगाना चाह रही थी। सूटकेस के अंदर फोटुओं के अनेक एलबम रखे थे, जिन्हें देखकर एक पल को दिल धक् से रह गया! ओह, उनमें कितनी–कितनी स्मृतियाँ बंद हैं, सब सही सलामत होना चाहिए। मन में एक अव्यक्त सा तूफान दबाए एक के बाद एक एलबम निकाल रही थी।
अपने स्कूली दिनों का एलबम हाथ में आया। कुछ नम सा, कुछ पुरानेपन के कारण कागज का भुरभुरापन हाथों में अजीब सा एहसास पैदा कर रहा था। उसके पृष्ठ पलटते हुए मेरी नजर गड़कर रह गई। उस पृष्ठ पर दो फोटो थे, एक में एक छोटी लड़की फ़्रॉक पर दुपट्टे को साड़ी की तरह लपेटे हुए और दूसरे में एक किशोरी वधू के वेश में थी। वह वधू मैं ही थी, ‘काबूलीवाला’ कहानी के नाट्य रूपांतर की मिनी, जो तब बड़ी हो जाती है और ससुराल जाने वाली है। नाटक के प्रारंभ में नन्हीं मिनी काबुलीवाला और उसके झोले से डरती थी और छिप जाया करती थी, पर धीरे–धीरे उस कद्दावर पठान की धनी दाढ़ी–मूछों में छुपी उजली मुस्कान और निश्चल आँखें उसे मिनी के साथ एक अनंत स्नेह–सूत्र में बाँध देती है।
‘काबुलीवाला’ का यह प्यार मेरे दिल के करीब था। स्टेज पर मेरी उपस्थिति केवल पाँच मिनट की थी पर रिहर्सल के दौरान, भी उस लम्बे–चौड़े पठान का अफ़गानिस्तान में छोड़ आए अपनी बेटी को याद कर रोना देखकर दिल में टीस उठती थी। उस वर्ष गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का ‘काबुलीवाला’ कुछ अधिक चर्चा में रहा। पूरे स्कूल में इस नाटक को लेकर एक उत्सुकता, उत्तेजना चारों तरफ थी। सारे पात्रों का अभिनय इतना जीवंत था कि गुरुदेव की कहानी मंच पर जी उठी।
एक ऊँचा–पूरा हट्टा–कट्टा पठान सरहद पार से अपने देश के उत्पाद भारत में बेचने आता है ताकि अपनी बेटी के विवाह के लिए कुछ पैसा जमा कर सके। भारत आकर अपनी बेटी सदृश मिनी से बहुत कोमल आत्मीयता से जुड़ जाता है। कहीं से भी उसका स्वभाव उसकी बाहरी या शारीरिक बनावट से मेल खाता नहीं लगता। उसके हाथ से खून हो जाता है। वो जेल की सजा भी काटता है। जेल से छूटकर मिनी से मिलने आता है। वहाँ बच्ची की जगह किशोरी मिनी को वधू के वेश में देखकर देश में छोड़ आए अपनी बेटी के बड़ी होने का एहसास एक झटके की तरह, मन में एक बिजली कौंधने की तरह महसूस करता है। अश्रुपूरित नयनों से हिचक–हिचककर रोते हुए उस कद्दावर पठान की लाचारी दर्शकों से सही नहीं जाती और नयनों की कोरों को भिगो देती है।
आज एलबम के इन दो फोटुओं को देखते हुए एक बार पूरा नाटक मेरी आँखों के सामने सजीव हो गया। मेरी गोद में वो एलबम पड़ा है, सामने टेबल पर अखबार, जिसके मुखपृष्ठ पर एक पलटन समाने लायक बड़े हर्फ़ों में अफगानिस्तान में युद्ध की खबर का ब्यौरा। अखबार और दूरदर्शन में बार–बार काबुल, कंधार का नाम पढ़–सुनकर व उनसे सम्बन्धित फोटुओं को देखकर एक तलब उठती। अपने उस पठान दोस्त ‘काबुलीवाला’ को आँखें ढूँढ़ती हैं। युद्ध में रत आज का अफगानिस्तान कहीं से भी उस अफगानिस्तान से मेल खाता नहीं लगता। बारिश ने एलबम का उतना नुकसान नहीं किया, पर निश्चित ही युद्ध ने कर दिया। वैसे युद्ध जैसे ग।म्भीर, भारी–भरकम विषय पर सोचने–समझने, बोलने–लिखने वाले विद्वान् उसे नही समझ सकते हैं। मेरे जैसी आम इंसान तो बस यही खोज रही है कि घनी दाढ़ी–मूछों में, पठानी सूट पहने इस भीड़ में मेरा काबुलीवाला कहाँ है? क्या वो कभी मिलेगा? या एलबम के इन फोटुओं की तरह स्मृति–शेष रह जाएगा?