वह पौधे देख रही है- मायूस निगाहों से। पत्ते मुरझा गए हैं। फूल नदारद। वह कुदाल नीचे रख देती है। क्यारी के किनारे बैठ न जाने क्या सोचने लगती है। शायद पौधों के बारे में। उसके ललाट पर पसीने की बूँदे मोतियों की लड़ की ज्यों चमक रही हैं।
सहसा मुझे देखकर कहती है, ‘‘ कोई दवा ला दो ना। देखो बेचारे किस तरह सूखे जा रहे है।’’ उसने बैंगन,टमाटर भिण्डी और मटर के पौधों की ओर इशारा किया।
मैं शाम को बीज भण्डार से दो तरह की दवाएँ लाकर उसे देता हूँ। एक पिलाने की दूसरी छिड़कने की।
‘‘अस्सी रुपये की है। इतने की तो सब्जियाँ भी नहीं लगेंगी। फिर तुम्हारा श्रम। दिन भर इन्हीं में लगी रहती हो। क्यों इस तरह अपने को थकाती हो?’’ मैं सहानुभूति से कहती हूँ।
वह मिनट भर मौन रहती है। फिर बोलती है, ऐसी गम्भीरता से जैसे बहुत बड़ी दार्शनिक हो, ‘‘तुम इतनी सारी किताबें मँगाते हो, पढ़ते हो। बहुत कुछ लिखते हो, छपने के लिए भेजते हो। जितनी तुम मेहनत करते हो ;उतना पारिश्रमिक कहाँ मिल पाता है? फिर भी तुम अपने काम में डटे हुए हो। भला क्यों?’’
उसके प्रतिप्रश्न में ही उत्तर छिपा हुआ था। कितने शानदार ढंग से उसने अपनी बात कह दी। मैं आवेग में उसे सीने से लगा लेता हूँ। उसका चेहरा प्रफुल्लित हो उठता है और क्यारी में बैंगन,टमाटर,भिण्डी और मटर के पौधे एकाएक ताजादम हो जाते हैं।