बबुआनी, ओ बबुआनी, ‘‘वो बाहर से ही चिल्लाते हुए घर के अन्दर दाखिल हुई।
मै अन्दर कमरे में बाल बना रही थी। आवाज सुनकर बाहर आई, ‘‘कौन है ? ओह तुम, क्या बात है ?’’ उस मालिश करने वाली को देख मैंने पूछा।
‘‘ऐसे ही बबुआनी, इधर आईले रही, ओ कैलाश बाबू के जनाना का मालिश करवे खातिर। तो सोचले रही, बबुआनी के पास भी जाकर आई। डिबरूगढ़ गईल रही का?’’ उसकी हिन्दी मिश्रित भोजपुरी मैं समझ पा रही थी।
‘‘न, अभी नहीं’’
‘‘ऐ देखो बबुआनी’’ कहते हुए उसने साड़ी का दबा पल्ला खींचकर बाहर निकाला। कोने मे बंधी गांठ को खोलने लगी। मैं गौर से देख रही थी कि वो मुझे क्या दिखाना चाह रही है। देखा तह किया हुआ एक पाँच रुपये का नाय नोट था। उन्हीं परतो में तह किया एक दो रुपये का नोट भी था। इस तरह मुझे रुपये दिखाने का अर्थ मैं समझ नहीं पाई। मैंने एक नजर उस पर, एक नजर रुपयों पर डाली। फिर अर्थ जानने को प्रश्नात्मक दृष्टि से पूछा ‘‘रुपए?’’
‘‘हाँ, वो मालिश करने का देइले रही।’’ उसने बडे़ गर्व व स्वाभिमान के साथ कहा।
‘‘सात रुपये?’’ मैने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा।
‘‘ हाँ, ऐ देखो, हम झूठ न कहत हो’’ उसने दुबारा रुपयों को मुझे दिखाकर अपनी बात की सच्चाई का विश्वास दिलाना चाहा, ‘‘ओ दिन आपको जैसे मालिश करले रही ना, वैसे ही कहते हुए उसने अनकहे शब्दों में बहुत अर्थपूर्ण, एक व्यंग्य भरा बाण मेरी ओर फेंका।
मैंने उस भोली औरत को देखा, रुपयों को देखा और नजरें झुकाकर कुछ कहे बगैर चुप रह गई, पर अन्तर्मन चुप न रह सका। मैं अन्दर शर्म से लाल हो गई थी।
एक दिन वह मुझे मिलने आई थी। मैने इसी का फायदा उठाते हुए उसे तेल मालिश करने को कहा। उसने लगन से मालिश की उसके जाते वक्त मैंने ईमानदारी दिखाते हुए एक रुपये का नोट निकाला। उसे थमाते हुए बोली, ‘‘लो, हम किसी का किया हुआ रखते नही।’’ इसी बहाने मैंने उसे गरीब, गवाँर व जाहिल समझ कर रुपया देने का एहसान भी जताया।
उसने रुपया ले लिया। मेरी ओर एक बार गहराई से देखा कुछ कहे, न कहे की स्थिति में आकर कुछ देर रुपए को देखती रही, फिर साड़ी का दवा पल्ला खींचकर टूटे मन से रुपये का कोने में बाँध लिया। ‘‘अच्छा बबुआनी, हम जावत हो, फिर आइबो,’’ कहकर वो चली गई।
पर आज..... आज मेरी गलत दृष्टि का बदला उसने ले लिया था। उसमें मेरी उपेक्षा व झूठे अभिमान पर बडे़ भोलेपन व समझदारी से प्रत्याघात किया था। अब मैं उसके आगे अपने–आपको बहुत छोटा महसूस कर रही थी।