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लघुकथाएँ - देश - डॉ0 मुक्ता
निरीह इंसान
‘‘तुम गर्भपात करवा दो, अन्यथा हमें तुम्हें घर से निकाल देंगे’’.....ये शब्द थे उसके पति के, जो अपने माता–पिता के हाथों की कठपुतली था। वह आज्ञाकारी सपूत था। उनके शब्द उसके लिए वेदवाक्य थे,अनुकरणीय थे। वह अपने माता–पिता को भगवान से बड़ा दर्जा देता था।
ईशा का रो–रोकर बुरा हाल था। वह जीव–हत्या करवा कर पाप की दोषी नहीं बनाना चाहती थी। वह उस बच्ची को जन्म देना चाहती थी। कई बार उसके मन में यह प्रश्न उठता ‘‘क्या तुम चाहती हो, कि तुम्हारी बेटी भी ऐसा नारकीय जीवन व्यतीत करे। वह भी घुट–घुट कर जीती रहे। वह भी तुम्हारी जुल्म सहती रहे।’’ इन सब बातों का विचार आते ही वह सिहर उठती थी और अगले ही पल वह तैयार हो जाती थी गर्भपात कराने के लिए।
‘‘मैं.....मैं तैयार हूँ। मैं भी नहीं चाहती, मेरी बेटी इस दुनिया में जन्म ले कर पल–पल दुख सहन करती रहे।’’ घर में सब खुश हो गए और उसका गर्भपात करवा दिया। अब वह भी निश्चिंत थी। उसके पति ने उसे चेतावनी दे दी, “यदि तुमने इस घर को चिराग नहीं दिया, तो मैं तुम्हें छोड़ दूसरा विवाह कर लूँगा। मेरी माँ पोते का मुँह देखकर ही मरना चाहती है। तुम्हें उसकी हर बात माननी होगी। यदि तुमने मेरे घरवालों को नाराज किया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। तुम अगली सुबह का सूरज नहीं देख पाओगी।”
ईशा यह सब सुनकर सहम गई। वह भगवान से प्रश्न करने लगी, क्या औरत को तुमने दुख सहने के लिए जन्म दिया है? हे भगवान! तुम इस संसार में प्रलय लाओ। सब स्त्रियों को मार डालो। हाँ! पुरुषों को मत मारना, ताकि इन्हें भी पता चले कि एक औरत आजीवन कितने दायित्व निभाती हैं? उन्हें पता चले कि पुरुष अकेला इस संसार की संरचना नहीं कर सकता। वह औरत के बिना अपाहिज है, अधूरा है।
 
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