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लघुकथाएँ - देश - युगल
जूते
चैतू राजमिस्त्री के साथ मजदूर का काम करता था। एक दिन सिर पर से ईट उतारते समय एक ईट पाँव पर आ गिरी। दाहिने पाँव की उँगलियाँ कुचल गईं। पत्नी बोली––‘‘पाँव में जूते होते, तो उँगलियाँ नहीं कुचलतीं।’’
उँगलियों में जो बिच्छू के डंक की तरह टीस थी, उसने दाँत–पर–दाँत रख बर्दाश्त करने की कोशिश की––‘‘तुम्हें क्या पता कि जूते कितने महँगे हो गए हैं ? जब पेट चलाना ही दुशवार हो, तो जूते....’’
पत्नी हल्दी का गर्म लेप उसकी उँगलियों पर चुपचाप लगाती रही। पेट चलाना तो सचमुच दुशवार हो रहा था। बेटा मैट्रिक पास कर गया था। सो वह मजदूरी का मोटा काम करना नहीं चाहता था। किसी दूसरे काम से लग भी नहीं रहा था। गाँव के लफ़ंगों के साथ ताश के अड्डे पर जमा रहता था। चैतू को जिस दिन काम नहीं मिलता, वह नीम या बबूल का दातौन तोड़ कर कस्बे में बेच आता। पाँच–सात रुपये आ जाते। एक बार वह जूतों की दुकान में गया भी था। लेकिन बहुत मामूली किस्म के जूते की कीमत इतनी थी कि दो दिनों की मजदूरी सर्फ़ हो जाती। अपने जूते के लिए परिवार के लोगों को दो दिनों तक भूखे रखने की बात सोच कर जूते खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा सका। मन को समझाया, जब पचास साल बिना जूते के कट गए, तो बाकी भी कट ही जाएँगे। वैसे इधर कई दिन सपने में उसे अपने जूते वाले पाँव दिखते रहे हैं। चलते–चलते उस के जूते वाले पाँव दूसरे के पाँवों में बदल जाते। उस पाँव पर ईट आ गिरती।
चैतू की उँगलियों के कुचले दो महीने भी नहीं हुए थे कि उसे के तलवे में शीशे की किरच घुस गई। खून के फव्वारे देखकर बेटा विचलित हो उठा। बाप को कस्बे के अस्पताल में गया। उस दिन उसने बाप के जूते के लिए शिद्दत के साथ सोचा। वह अपने एक पड़ोसी के साथ पंजाब चला गया कि वहाँ कमाई का कोई डौल तो बैठ जाना चाहिए।
लौटा वह आठ महीने बाद। बाप के लिए जूते ले आया था। चैतू आँगन में खाट पर लेटा था। बेटे को देख कर माँ उल्लसित हुई, ‘‘इनते दिनों कहाँ रहे बेटा! नकोई पता, न कोई चिट्ठी–पत्री।’’ आँखें डबडबा आईं। माँ कुछ क्षणों तक जूते को देखती रही। फिर उसने चैतू के पाँव पर से चादर हटा दी। बोली––‘‘किरच वाला तलवे का घाव जहरबाद बन गया था। पाँव सड़ने लगा था। डाक्टर ने काट दिया।
 
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