अपनी जिंदगी में पिता वह सब हो सकते थे जो वे खुद या हम चाहते। घर में सबसे छोटा मैं था। मेरी इच्छा थी उन्हें घोड़ा बनकर खूब तेज भागते रहना चाहिए। भाई मुझसे बड़े थे। वे चाहते थे पिता नाव बनें ताकि बारिश के दिनों में हम चाहें तो नदी पार कर सकें। माँ और बहन का खयाल था कि उन्हें छाते में बदल जाना चाहिए जो धूप में भी उतना ही जरूरी होता है जितना बारिश में।
घर में किसी एक की भी इच्छा अधूरी रह जाती तो पिता कष्ट पाते, इसलिए ज़रूरत के मुताबिक वे घोड़े और नाव और छाते में बदलते रहे।
‘बदलना अपने को थका लेना है’–एक दिन पिता ने कहा। उनकी उम्र तब साठ साल थी। वे सचमुच थके हुए घोड़े की तरह हाँफ रहे थे और अब लालटेन या कुतुबनुमा जैसी कोई चीज़ हो जाना चाहते थे। हम लेकिन चाहते थे कि वे बच्चों की पसन्द के हिसाब से हारमोनियम बनें और कमरे में बैठ जाएँ।
एकदम नई चीज़ था शुरू–शुरू में हारमोनियम घर के लिए। कुतूहलवश बच्चे उन्हें घेरकर बैठ जोते और जब मन होता, बजाते। पर जल्दी ही उनके सुर बिगड़ गए। यह भी तब हुआ जब बच्चे हारमोनियम से उकता गए थे। हारमोनियम बने पिता बच्चों की उपेक्षा से आहत होकर स्वत: बजने लगे ।कई बार तो आधी रात हो जाने पर भी। असल में वे चाहते थे हम सब पहले की तरह चकित–से उनका किसी भी चीज में बदल जाने का जादू देखें और उन्हें घेरे रहें, शायद इसी कारण बिना किसी से पूछे एक दिन वे पेड़ हो गए। देखा जाए तो यहीं से उनकी कठिनाइयों का सिलसिला शुरू हुआ।
पेड़ में तब्दील होकर घर में वे जहाँ बैठते, वही धँस जाते–कभी भाई के कमरे में, कभी मेरे कमरे में। बार–बार उन्हें उखाड़कर दूसरी जगह ले–जाना पड़ता ,जो एक मुश्किल काम था। इसलिए एक दिन हमने प्रार्थना की कि वे पेड़ के सिवाय कुछ और हो जाएँ। पेड़ होकर पिता खुद कष्ट पा रहे थे, क्योंकि उखाड़ते वक्त न चाहते हुए भी ज़रा–सी बेरहमी हो जाती और जड़ों के टूटने से उनका शरीर थर–थर काँपता। हमारी बात मानते हुए वे फिर से पिता बने, मगर उनके शरीर का कम्पन यथावत् रहा। डॉक्टर के मुताबिक इस बीमारी का नाम पार्किन्सन था और यह लाइलाज थी। लेकिन डॉक्टर को पता नहीं था कि पिता खुद को बदलने का जादू जानते हैं। वह एक पर्ची पर कुछ दवाइयों के नाम लिखकर घर से अभी गया ही था कि पिता के चेहरे पर मुस्कराहट आई। बेशक वे कमजोर हो चुके थे, मगर इतने भी नहीं कि एक बार और न बदल सकें। उनका चेहरा लाल था। हाथ–पैर काँप रहे थे। वे बदलने की कोशिश कर रहे थे। इस कोशिश में तीन–चार मिनट लगे। इन तीन–चार मिनटों में ही शरीर की पूरी ताकत लगाकर वे एक तस्वीर में तब्दील हुए और मेरे कमरे में टीवी के दाईं ओर जहाँ दीवार खाली थी, टँग गए।