‘‘रहीम बक्श, तुमने काफिर को अपने घर में पनाह दी है और उसकी हिफाज़त में दीनो–मजहब को भी भूल गए,अल्लाह तुम्हें दोजख में भी जगह नहीं देगा।’’ धर्माध दंगाइयों के रहनुमा चिल्लाए। जवाब में दरवाजे खुल गए। सामने रहीम बक्श दोनों बाजुओं को दरवाजे पर फैला कर बेखौफ खड़ा था और पनाहगीर पीछे। रहीम बक्श ने पूरी नजर मियाँ भाई के पीछे खड़ी भीड़ पर डाली और पनाहगीर रघुनाथ को आगे ढकेल दिया, ‘‘मारो....मियाँ भाई, मारो इस काफिर को।’’
‘‘जरूर मार डालो, लेकिन.....इस सलमा को देखो।’’ सलमा जो अब तक पीछे खड़ी थी। सुबकती हुई आगे आ गई।
‘‘मेरी जवान बेटी को इसी काफिर ने दंगाइयों की दरिंदगी से बचाकर यहाँ तक पहुँचाया और खुद फँस गया।’’ मियाँ भाई ने मुड़कर पीछे देखा और बुदबुदाए, ‘‘फरिश्ता।’’ भीड़ छँट गई थी।
सलमा ने रघुनाथ से कहा, ‘‘भाई जान! अंदर चलो।’’