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लघुकथाएँ - देश - रमेश बत्तरा
लड़ाई
ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया। तार बतलाता है कि उनका फौजी बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा....देश के लिए शहीद हो गया है।
‘‘सुख तो है न बहू!’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है?’’
‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’ सास भी आगे बढ़ आई।
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है लड़ाई जल्दी खत्म हो जाएगी....’’
‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मजाक किया।
‘‘कुछ नहीं।’’ कहती वह मानो लजाई हुई–सी अपने कमरे की तरफ भाग गईं
बहू ने कमरे का दरवाजा आज ठीक उसी तरह बन्द किया जैसे हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह....कमरे की हर चीज पर डाली मानो सब कुछ पहली बार देख रही हो....अब कौन–कौन सी चीज काम की नहीं रही.....सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गई। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही। फिर उसने बंदूक दीवार पर से उतार ली। उसे खूब साफ करके अलमारी की तरफ बढ़ गई। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी–सी अटैची निकाली और अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वो जोड़ा पहन लिया जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था।
सज–सँवरकर उसने पलंग पर रखी बन्दूक उठाई। फिर लेट गई और बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते–चूमते सो गई।
 
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