दादाजी रामू को कहानी सुना रहे थे। बहुत बरस पहले की बात है, अपने ही गाँव में एक बहुत ही परिश्रमी तथा लगनशील, कर्मठ किसान रहता था, उसके पास थोड़ी-सी जमीन थी जिसमें वह दिन–रात कड़ी मेहनत करके अपने जीवन–यापन लायक अन्न उपजाता था। एक समय पूरे राज्य में भयानक सूखा पड़ा। भयंकर गर्मी और धूप से धरती की सम्पूर्ण हरियाली झुलस गयी। इंच–इंच जमीन में दरार पड़ गयी। मवेशियों के चारे तक के लाले पड़ गये। असंख्य लोगों की मृत्यु हो गयी। हजारों की संख्या में मवेशी बूचड़खाने में पहुँचाये जाने लगे। शायद यह शताब्दी का सबसे भयानक अकाल था।
लेकिन वह परिश्रमी किसान क्रूर प्रकृति से जूझता रहा। कोसों दूर जाकर अपने मवेशियों के लिए चारा लाता तथा प्रतिदिन अपने बैलों को लेकर खेत पर हल चलाने जाया करता था।
एक दिन आग उगलती धूप में उसे हल चलाते देख आकाश में उड़ते बादल ने किसान से पूछा–‘‘सूखे खेतों में हल किसलिए चला रहे हो।’’
‘‘इसलिए कि आलसी होकर हल चलाना न भूल जाऊँ’’ किसान ने उत्तर दिया।
‘‘कहीं बरसना न भूल जाऊँ’’ इस डर से उस दिन बादल भी खूब बरसा।
गाँव वालों ने किसान के लगन और परिश्रम को देखकर उसे गाँव का प्रधान बना दिया। लेकिन दूसरे ही वर्ष फिर भयंकर सूखा पड़ा।
रामू ने बीच में टोकते हुए पूछा–‘‘फिर सूखा क्यों पड़ा दादाजी।’’
दादाजी ने आह भरते हुए कहा, क्योंकि बेटा अब वह किसान अपने कर्तव्य और परिश्रम को भूल कर सत्ता सुख में खो गया था।