आज फिर शहर बंद था।
धर्म के नाम पर पिछले कुछ दिनों से कभी शहर बंद, कभी प्रदेश बंद, कभी जिला बंद और कभी देश बंद से शहर के लोग आजिज आ चुके थे। हार कर पेट की खातिर बंद के दौरान दिहाड़ी कामगारों ने जोखिम उठाकर अपना व्यवसाय जारी रखना चाहा। इसमें चौराहे पर चना, मूँगफली बेचने वाली बुढि़या भी थी।
अचानक एक ओर से ‘जय–जय श्रीराम’ और दूसरी ओर से ‘नारा–ए–तकबीर’ के नारों की आवाजें आने लगीं।
‘‘अम्मा! अपनी दुकान बढ़ा ले, नही तो लुट जाएगी......लोग इधर ही आते जान पड़ते हैं।’’ दुकान के आसपास खड़े कुछ लोगों ने बुढि़या को सलाह दी।
‘‘अऐ, नासपीटे फिर आ गए लगतें......जिनके पेट भरें लगतें.....नई तो घूम रये होते फिरकनी की नाई.....जा मंदिर, मज्जत न खाबे को दे जात, सिगन्नें रोटी लगी जान पड़त....जे मंदर मज्जत को भरेंगों (अपने पेट पर हाथ मारकर बुढि़या भड़क गई).......आग लगें सुसरिन्न में......हमाओ जई की लड़ाई में लगे रहत......जे भरेगों तबई न भार (बहार) के मंदर मज्जत के बारे में सोचिंगे।’’ बुढि़या सामान बटोरते हुए बोली।
आसपास खड़े सभी लोग आँखें फाड़े बुढि़या की जमीनी सोच पर सहमति से सिर हिला रहे थे, उन्हें बुढि़या का कथन हिंदू–मुस्लिम कट्टरपंथियों के गगनभेदी नारों के आगे अपेक्षाकृत अधिक भारी जान पड़ रहा था।