समुद्र के किनारे दौड़ते हुए वह हाँफ रहा था जब किसी ने उसे पीछे से पुकारा–‘किशन भैया!’ उसने गर्दन मोड़ी। पुकारने वाला पीछे से दौड़़ता हुआ उसके साथ आ गया और साथ–साथ दौड़ने लगा। अपराहन की बेला थी। सूर्य रेत पर चमक रहा था। समुद्र पर हर ओर सूर्य चमकता हुआ नजर आता और लहरों में छिप जाता, लहरें किनारे की रेत पर फेन उगल रही थी।
‘मैंने तुम्हें पहचाना नहीं’। दौड़ते हुए किशन ने पूछा।
‘मैं ललितपुर से आया हूं। रामेश्वर का छोटा भाई हूँ, देवेन्द्र।’
‘अच्छा–अच्छा, तुम यही रुको। मैं चक्कर पूरा करके आया।’
देवेन्द्र जयकिशन को रेत पर दौड़ता हुआ देखता रहा । किशन झक सफेद टी–शर्ट,निकर और रीबोक के सफेद जूते–मोजे पहने था जैसे कोई राजकुमार या अभिनेता हो। वह बिल्कुल लड़का लगता था। अलबत्ता रामेश्वर भैया की उमर का है, देवेन्द्र ने सोचा। वह उसी जगह रुक गया जहां जयकिशन ने उससे रुकने को कहा था। रेत से वह थोड़ा पानी की ओर बढ़ा और दूर क्षितिज में ताकने लगा जहां समुद्र आकाश की ढलान पर एक झटके से लुढ़क रहा था। समुद्र की अगली लहर रेत पर उसके पैंरों को भिगो गई। उसने चप्पल पर पहनी गंदी–सी जीन्स को ऊपर मोड़ लिया। लहर लौट गई थी। रेत पर बचा पानी धूप में चमक रहा था।
अभी जूहू तट पर भीड़ नहीं थी। कुछ लोग थे और घोड़े थे और समुद्र का शोर था। दूर कुछ उड़ते पक्षी नजर आते थे जहां रेत और पानी मिल रहे थे।
‘देवेन्द्र’,किशन ने हाँफते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा, ‘रामेश्वर कैसे है?’
‘ठीक है।’
‘कितने बच्चे है?’
‘दो’
‘कितने बड़े है?’
‘बड़ा लड़का जवान है’, देवेन्द्र ने कहा और सोचा कि कहे कि वह कुछ आपके जैसा लगता है।
‘क्यों मुस्करा रहे हो?’
‘जी...कुछ नहीं।’
‘अच्छा’,जयकिशन ने उसे ऊपर से नीचे तक देख्शते हुए पूछा, ‘तुम वहाँ कैसे?’
देवेंद्र ने जान लिया था कि जयकिशन ने उसकी एक हफ्ते गंदी जींस और मुचड़ी कमीज और चप्पलों को देख लिया है।
वह सकपकाया, ‘मैं..मैं यहाँ ढूँढ़ने आया था’।
‘क्या...क्या ढूँढ़ने ?’ जयकिशन ने हैरत से आँखें फाड़ीं।
‘अच्छा’,जयकिशन हँसा- ‘किस्मत आजमाने आए हो।’
उसका ठहाका इतना जोरदार था कि आस–पास चलते लोग चौंके।
देवेंद्र ने उसे नहीं बताया कि उसके ललितपुर छोड़ने के पीछे जयकिशन की सफलता की कहानी थी। सारा ललितपुर जानता था कि एक दिन बरसों पहले जयकिशन बिना टिकट मुंबई हीरो बनने आया था और एक सफल सिने पार्श्वगायक हो गया था। उसका जुहू पर बंगला था। दो बीवियाँ थीं, तीन गाड़ियाँ थी।
‘जी’, देवेंद्र के मुँह से निकला, ‘जी हाँ’,
दोनों के पैरों को फिर समुद्र की एक लहर भिगोकर लौट गई।
‘क्या बनना चाहते हो?’ जयकिशन ने देवेंद्र के रूखे,युवा चेहरे को देखते हुए पूछा। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
‘हीरो बनने आया था’, देवेंद्र हँसा, ‘अब कुछ भी बनने को तैयार हूँ।’
‘क्या घर से भागे थे?’
‘हाँ,शहर में कोई काम नहीं था। मैं बचपचन से स्कूल में नाटक करता था। मुझे लगा, मेरा यही काम है, जो मुझे मुम्बई में मिल जाएगा।’
एक गुब्बारे वाला एक ओर से आकर दूसरी ओर चला गया। फिर दो सींगदाने बेचते लड़के एक–दूसरे से टकराकर विपरीत दिशाओं में चले गए। एक घोड़गाड़ी पास से तेज भागती निकल गई। कोई आदमी उसमें खड़ा दिलीप कुमार की तरह चाबुक घुमा रहा था।
जयकिशन कुछ देर चुपचाप देवेंद्र को, समुद्र को और घोड़ागाड़ी को देखता रहा। फिर उसने कहा–संघर्ष ही जीवन है। इस शहर में समुद्र है और स्ट्रगल है। देखो, समुद्र को गौर से देखो, तुम्हें लगेगा समुद्र भी स्ट्रगल कर रहा है। जीने के लिए हर लहर उसकी साँस है– जो रेत पर टूट जाती है। समुद्र हर पल मरता है–और हर पल जीता है।’
फिर एक लहर रेत पर आई।
जयकिशन हँसा, फिर उसने कहा–‘मैं एक बार तीन दिन तक भूखा रहा था। मैं जानता हूँ- भूख क्या है। स्ट्रगल क्या है!’
जयकिशन शून्य में देख रहा था। देवेंद्र ने उम्मीद से उसकी ओर देखा और कहा, ‘मुझे सौ रुपये चाहिए।’
जयकिशन की तंद्रा टूटी। वह बोला–‘मेरे पास हैं। लेकिन मैं तुम्हें दूँगा नही। तुम्हारी तपस्या भंग नहीं करूँगा। तपस्या के बाद ही वरदान मिलेगा।
आखिरी वाक्य बोलते हुए वह पहले की तरह रेत पर दौड़ने लगा। देवेंद्र उसे पीछे से अनवरत छोटा होते और दूर जाते देखता रहा।