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लघुकथाएँ - देश - वसंत आर्य
साँवली
यों तो मुहल्ले में कोई भी नई लड़की आये तो लड़कों में दस दिनों तक आहें भरे जाना अनिवार्य है। पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि चंपा साँवली थी और साँवली लड़की में रुचि दिखाकर कोई भी अपनी ‘घटिया’ पसंद का प्रदर्शन नहीं करना चाहता था। हाँ, यह बात अलग है कि उसकी अनारो मौसी के साथ सिर्फ़ मैंने ही चाची का रिश्ता नहीं गांठ लिया बल्कि पड़ोस के और भी बहुत से लोगों की बुआ, अम्मा, दादी, नानी और न जाने क्या–क्या हो गयीं वे।
उसके साँवली होने के कारण अनारो चाची के घर में भी इस बात की चर्चा प्राय: चलती। चंपा मुझ से कहती, ‘‘अच्छा बासु, रेखा काली है न?’’ मैं समर्थन में सिर हिला देता तो वह दौड़ती हुई सबको चाची के पास बुलाकर लाती और कहती, ‘‘देखो, रेखा काली है फिर भी फिल्मों में काम करती है। पिछली बार ही टी0वी0 पर उसकी फिल्म आयी थी। मैं तो काली भी नहीं हूँ, साँवली हूँ।’’
चाची कहती, ‘‘अरे तो क्या तुझे कोई फिल्मों में काम करना है, पहले हाथ.......’’
तभी कोई कह देता, ‘रेखा की तो शादी भी नहीं हुई, हुई भी तो’’
फिर चंपा की आँखों में उदासी के मोती झिलमिलाते। कभी गिर पड़ते। कभी दिल में अटक कर रह जाते। चाची कहती, ‘‘अरे मेरी बेटी के लिए चाँद सा दूल्हा आएगा।’’
कोई हृदयहीन फिर कह बैठता, ‘चाँद से दूल्हे की अम्मा अपने घर में महरी भी गोरी देखकर रखती है।’
फिर कई बरस बीते। मुझे कई जगह अप्लाई कर रिप्लाई का इंतजार करते–करते दिल्ली में एक नौकरी मिल गयी। पर चंपा को अपने जिंदगी के लिफाफे पर लिखने के लिए कोई भी पता नहीं मिला। कभी चाची झुँझलाती, ‘‘अरे, रामजी भी तो काले थे।’’ किसी ने उनसे कह दिया कि दिल्ली में शहनाज हुसैन रहती है। वह चंपा को गोरी बना सकती है। वे मेरे पास आयीं और बोली, ‘‘बासु बेटा, अगली बार दिल्ली से आना तो शहनाज हुसैन से गोरा होने की दवाई लेते आना।’’
दिल्ली जाकर मैंने चंपा के बारे में बहुत सोचा और एक ही निष्कर्ष पर रुक–रुक गया। बहुत खूबसूरत मगर साँवली -सी। मुझे बचपन में खेले हुए गुड्डे–गुडि़यों का खेल स्मरण हो आया और गुड्डे की जगह खुद की कल्पना कर रोमांच।
दिल्ली से वापस आते समय मैं गोरेपन की ‘दवाई’ जान बूझ कर नहीं लाया।
चाची बोली, ‘‘क्यों बासु, तुम्हें चंपा की कोई फिक्र नहीं? तुम उसके हाथ पीले नहीं देखना चाहते न!’ मैं झिझकते हुए कह बैठा, ‘देखना क्यों नहीं चाहता, मगर इसके लिए उसे गोरी होने की क्या जरूरत है, मुझे तो वह साँवली ही...’’
सुनते ही चाची का मुँह खुशी और आश्चर्य से खुला रह गया पर चंपा पर्दे के पीछे शर्म से लाल हो गयी।
 
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