सुरजीत सिंह का अपनी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। ‘तू–तू, मैं–मैं’ हुई थी। पत्नी ने ललकार कर कह दिया था, ‘‘पका लो रोटियाँ आज आप ही, मुझसे नहीं होता तुम्हारा ये रोज़–रोज़ का स्यापा !’’
उसे एतराज था कि वह तो दिन भर रसोई में ही उलझी रहती है और पतिदेव दोनों बच्चों के साथ आराम से बैठे टी.वी देखते रहते हैं।
सुरजीत सिंह भी आज अपनी आई पर आ गया था। उसने भी पूरे गुस्से में आकर कह दिया था, ‘‘ठीक है, ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं है, हमें आती है रोटी पकानी।’’
और वास्तव में ही दोनों बाप–बेटे रसोई में जा पहुँचे थे। पत्नी साहिबा चादर ओढ़ कर लेट गई थीं। लड़की अपने ही किसी कार्य में मग्न थी।
बाहर वाला दरवाजा खुला रह गया था, इसलिए सुरजीत सिंह को पता ही न चला कि कब उनका एक घनिष्ठ मित्र रसोईघर के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ।
‘‘क्या बात आज खुद ही हाथ जला रहे हो? भाभी जी से कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया?’’
सुरजीत सिंह चौंक गया था, जैसे कोई अनहोनी हो गई हो। ‘मायके गई है यार’ वह अभी यह संक्षिप्त वाक्य बोल कर अपना स्प्ष्टीकरण देने ही वाला था कि भीतर से पत्नी ने सिर से चादर उतार यह देख लिया था कि कौन आया है। अत: सुरजीत ने कहा, ‘‘बीमार है आज थोड़ी, अभी दवा लेकर आए हैं। डाक्टर ने आराम करने को कहा है।’’
लड़की पता नहीं कब आंख बचा कर माँ का सिर दबाने लग गई थी और पत्नी तो ऊँची–ऊँची कराहने भी लगी थी।
‘‘ठीक है भई फिर तो...’’, दोस्त ने कहा और जाने लगा।
‘‘बैठ यार!’’
‘‘नहीं फिर आऊँगा।’’ मित्र बाहर की ओर चल दिया।
सुरजीत सिंह ने बेटे से यह तो ऊँची आवाज़ में कहा ‘जा अंकल को दरवाजे तक छोड़ आ’ लेकिन यह बात कान में ही कही कि ‘आते वक्त दरवाजा अच्छी तरह बंद कर आना।’