वह शहर के सबसे बड़ चौराहे पर था। आने-जाने वालों की संख्या बहुत थी। उसे अच्छे पैसे मिल जाते थे। वह खुश था।
आज भी वह अपनी नियत जगह पर था। दफ्तर के बाबुओं का आना-जाना शुरू हो गया था। उसने भी अपनी आवाज बुलंद की - 'देनेवाला सीताराम! भाई दस पैसा! बहन जी, दस पैसा! बाबूजी, भगवान के नाम पर दस पैसा!'
वह सहम गया। बाबूजी लाल ऑंखों से घूर रहे थे। फिर उन ऑंखों में एक चमक उभरी जो हाथ के रास्ते उसकी पीठ पर उतर गई -'साला काफिर! बोल, अल्लाह के नाम पर दे!' बाबूजी के हाथ में एक रूपए का नोट था और वह बोहनी खराब करना नहीं चाहता था।
उसने आवाज लगाई -'दे दे, अल्लाह के नाम पर दे दे! खुदा तेरे बच्चों पर सलामत की नजर रखेगा।' रूपया उसके कटोरे में था। बाबूजी के होठों पर वक्र मुस्कान।
अल्लाह के नाम पर कटोरा भर गया। वह उस कटोरे को बड़ी थैली में उलीचने जा ही रहा था कि पीछे से एक लात पड़ी -'क्यों रे! एक ही रात में तेरी सुन्नत हो गई जो हरामी अल्लाह-अल्लाह की बरसात कर रहा है। जान की खैर चाहता है तो दुबारा इन विधर्मियों की जुबान मुँह पर नहीं आनी चाहिए।'
'बिजनेस का टेम है। काहे को धंधा खराब करने का!' उसने सोचा - एक पल, दो पल ... समय सरक रहा था।
कटोरे का पैसा थैले की दूरी तय कर चुका था। उसने खाली कटोरा सामने रखा और जोर की आवाज लगाई -'दे ऊपरवाले के नाम पर! वह सबका भला करेगा! तेरा भी और तेरा भी।' उसे अल्लाह और भगवान के बन्दे याद आए।
उसके कटोरे में दोनों के ही बन्दों के पैसे थे ।
वह मुस्कुरा उठा ।