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धरती का काव्य
कंधे पर हल धर किसान ने बैलों की रास सँभाली। खेतों की ओर उसके पैर उठने ही वाले थे कि एक कवि आ पहुँचा।
‘‘किसान भैया !’’ कवि ने रुकने के स्वर में पुकारा, ‘‘ आओ, कुछ क्षण बैठो। एक कविता सुनाऊँ।’’
‘‘कविता !’’ किसान अचकचाया, जैसे उसने कुछ समझा ही नहीं।
‘‘अरे काव्य!’’ कवि झुंझलाहट भरे स्वर में बोला, ‘‘तुमने काव्य का नाम तक नहीं सुना? अरे, यह वही काव्य है, जिसमें गुलाब के पौधे झूमते हैं, चन्दन की सुगन्ध वायुमंडल को तरोताजा बनाती है, चाँदनी गाती है, कल्पना की परियाँ नाचती हैं, नये लोक बनते हैं, मिलते हैं। और जानते हो, इसमें हँसने वाले खेतों पर कभी पाला नहीं पड़ता।’’
कवि ने चमक भरी नजरों से किसान को देखा। सुनकर वह विस्मय में डूब गया। आश्चर्य में गोते लगाते बोला, ‘‘तो क्या इससे पेट भी भरता है?’’
‘‘अरे! पेट कैसे भरेगा?’’ कवि के कपोलों का ऊपरी भाग सिकुड़कर मुँदती आँखों के पास चला आया, ‘‘यह तो कल्पना का काव्य है।’’
सुनकर किसान मुस्कराया, बैलों की पूँछ हिलायी, टिटकारी दी और आगे बढ़ गया।
‘‘अरे! सुनते तो जाओ’’ कवि ने चिल्लाकर पूछा ‘‘कहाँ चले?’’
‘‘धरती का काव्य लिखने।’’ किसान का उत्तर था।
 
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