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दाग
बरसात के दिन थे। फूँक– फूँक कर कदम रख रहा था। भय था कि कहीं कपड़ों पर कीचड़ के दाग न लग जाएँ।
कभी–कभी यह अतिरिक्त सावधानी भी, भारी पड़ जाती है। पास से निकलते एक स्कूटर चालक ने पायजामे पर कुछ छींटे उड़ा ही दिए। तभी पीछे से आते एक ट्रक ने अपनी ‘स्प्रे कला’ का प्रदर्शन करते हुए नख–शिख शृंगार कर दिया। मन ही मन उसे कोस रहा था कि ट्रक अंकित सुभाषित पर नजर चली गई, ‘‘बुरी नजर वाले तेरा मुह काला।’’
हँसी आ गई। मुँह तो काला नहीं हुआ था पर कपड़े जरूर कीचड़ से काले हो गए थे।
हँसी और वेदना के इन क्षणों में एक सड़क- बोध जागा,भीड़–भाड़ वाली इस आधुनिक रफ्तार ने किसे दागी नहीं बनाया।
तभी कीचड़ सनी एक धवल कार हार्न बजाती हुई जैसे कह गई, ‘‘देखो, मगर प्यार से।’’
 
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