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बेबसी
बहू उस के आगे रोटी वाली थाली रख गई थी। वह भूखों की तरह रोटी खाने लगा। रोटी खाते हुए वह इधर–उधर देख रहा था ,जैसे उसे डर हो कि कोई उसके आगे से रोटी उठा लेगा। रोटी खाते हुए उसे एक बात और सता रही थी कि उसकी पत्नी पूरी तरह से उसकी ओर से विमुख हो गई थी।
एक वह भी समय था, जब वह पास बैठ कर उसे रोटी खिलाती थी। उसकी भूख, थकावट सब मिट जाती थी।
‘‘एक फुलका और!’’ उसने पास से गुज़र रही पत्नी से कहा। वह स्वयं भी हैरान था कि उसे इतनी भूख क्यों लगने लगी है।
‘‘किसी और ने भी खानी है, क्या सारा आटा तुम्ही खा जाओगे।’’ बहू से जवाब लेकर उसकी पत्नी लौट आई थी। वह सोचने लगा, जब वह कमाता था, किसी बात की कमी न थी। बड़बड़ाती बहू थाली में रोटी पटक गई थी, साथ में कह गई, ‘‘बेबे, तू भी खा ले रोटी।’’
‘‘बस एक फुलका...!’’ उसने पत्नी की मिन्नत की।
‘‘मुझसे नहीं बेज़ती करवाई जाती।’’ पत्नी बोली।
‘‘रोटी ही तो खाता हूं, कोई और ऐब तो नहीं मुझे।’’
‘‘इस उम्र में रोटी भी ऐब हो जाता है।’’ पत्नी बोली।
रोटी खाता वह पचास वर्ष पीछे लौट गया। उसकी नवविवाहित पत्नी उसे रोटी खिलाते हुए पंखा झल रही है। वह उसके मुख में रोटी का ग्रास डाल रही है और वह ‘न न’ करता रोटी खा रहा है।
‘‘बस एक ग्रास और...।’’
‘‘ऊँ....हूँ...’’
‘‘बस यह हाथ वाला ग्रास...’’
‘‘मेरी भूख तो बस तुम्हें देख कर ही....।’’
‘‘लो मेरे हिस्से की तुम्हीं खाओ...’’-उसकी पत्नी ने अपनी थाली उसके आगे रखते हुए कहा।
उसने चौंककर पत्नी की ओर देखा। उसे पत्नी पर तरह आया। आँखें नम हो गई। देर तक वे एक–दूसरे को देखते रहे।
 
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