छोटी–सी बात का बतंगड़ बन गया था। पूरे चार दिनों से दोनों के मध्य संवाद स्थगित था। पत्नी का यह तल्ख़ ताना उसके मन को चीर गया था, ‘‘विवाह को वर्ष भर हो गया है। एक साड़ी भी लाकर दी है?’’
शब्दों की आच में सारा खून छीज गया था। अपमान का पारा सिर चढ़कर तप्त–तवे–वा हो उठा था और....वह कड़ुवे नीम से कटु शब्द बोल गया था कि ‘‘नई साड़ियाँ पहनने का इतना ही शौक था तो अपने पिता से कह दिया होता....किसी साड़ियों की दुकान वाले से ब्याह कर देते।’’
तब से दोनों के बीच स्थगित अबोला आज तक जारी था। यों रोज उसके सारे कार्य समय पर पूर्ण हो जाते थे.......शेव की कटोरी से लेकर भोजन की थाली तक। बस.....सिर्फ़ प्रेम और मनुहार की वे समस्त बातें अनुपस्थित थीं; जिनके बिना वे दोनों एक पल भी नहीं रह पाते थे।
लेकिन आज...! आज जब ऑफिस से उसे आदेश मिला कि...पन्द्रह दिनों के डेपूटेशन पर भोपाल ऑॅफिस जाना है तो...घर आकर स्वयं को नहीं रोक पाया वह । रुँधे गले से भीगे शब्द निकल पड़े, ‘‘सुनो सुमि! मेरा सूटकेस सहेज देना....पन्द्रह दिन के लिए भोपाल जाना है।’’
‘‘क्या....! भोपाल....!! पन्द्रह दिनों के लिए....!!’’ और इतना बोलकर सुमि के शेष बचे शब्द आँसुओं में बह निकले। दोनों के मध्य स्थापित अबोला टूट गया....एक–दूसरे को उन्होंने बाँहों में जकड़ लिया। उनकी आँखों से बहते गर्म अश्रु आपस में ढेर सारी बातें करने लगे।