उमा का अनुशासनप्रिय स्वभाव विपिन को कभी–कभी बहुत दुखी कर देता था। वैसे तो उमा ने घर को बहुत अप–टू–डेट रखा था। घर की हर चीज अपने–अपने स्थान पर मौज़ूद रहती थी। बिजली गुल होने के बावजूद अँधेरे में भी जो चीज चाहो, नियत स्थान पर हाथ डालो ,मिल ही जाएगी।
जहाँ तक चीजों का सवाल था, विपिन को कोई आपत्ति नहीं थी, पर छोटे राजू के साथ सख्ती और अनुशासन उसे बहुत खटकता था। बच्चा आखिर बच्चा है। वह कोई निर्जीव वस्तु नहीं कि उसे सजाकर रख दो। वह उमा को समझाने की कोशिश करता, परन्तु उमा बाहरी लोगों की तारीफ सुनने की आदी हो चुकी थी। ‘‘उमा अपना घर तुम कैसे बढि़या रख पाती हो? तुम्हारे घर में बच्चा है ,फिर भी घर एकदम साफ,चकाचक, जमा हुआ।’’ सुनकर उमा की छाती गर्व से फूल जाती।
आज राजू स्कूल से आया तो सहमा–सहमा था। उसका लंच बॉक्स खो गया था। माँ की डाँट जैसे घर में घुसने के पहले ही उसके कानों में गूँज रही थी।
विपिन ने घर आते ही राजू को पलंग पर सुबक–सुबककर रोते देखा, राजू के गाल पर उँगलियों के निशान देखकर उसका संयम टूट गया। उसने घर के सभी नियमों को तोड़ दिया। राजू को वह बाजार ले गया, घुमाया, खिलाया, पिलाया और लौटते समय दो लंच बॉक्स ले आया। उमा कुछ बोले उसके पहले ही उसने कहा, ‘‘उमा, छोटी–छोटी बातों के लिए बच्चे का बचपन मत छीनो, घर को घर रहने दो। तुम्हारा घर को अनुशासन में रखना, मुझे मेरा अनाथालय में बिताया बचपन याद दिलाता है। मैं अपने बच्चे को अनाथालय में नहीं, घर में पालना चाहता हूँ।’’