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चोर
–आज क्या प्रोग्राम है, शुक्ला?
–हुकुम कीजिए, सर!
–कुछ नमकीन हो जाए।
शुक्ला ने प्रिंसिपल की मेज़ पर पड़ी घण्टी दबा दी। चपरासी हाज़िर हुआ।
–ऐसा करो रामदीन, दस रुपए के पनीर–पकौड़े और कुछ मीठा ले आओ।
रामदीन के जाते ही शुक्ला ने जेब से एक रसीद निकालते हुए कहा–इस पर दस्तखत कर दें सर; लैब्रोटरी के लिए सैल खरीदे थे।
रसीद को वाउचर में तबदील कर शुक्ला ने जेब के हवाले किया ही था कि महाजन सर एक लड़के को धकेलते हुए कमरे में दाखिल हुए।
आप ही फैसला करें प्रिंसिपल साहब। ऐसे लड़के को स्कूल में रखने की क्या तुक है? आज इस क्लास में चोरी, कल किसी दूसरी में। आज रँगे हाथों पकड़ा गया, कमीना कहीं का।
क्यों बे, की थी चोरी? प्रिंसिपल ने दबका मारा।
सर, फीस जमा कराने का आखिरी दिन था।
घर से क्यों नहीं लाया? क्या करता है तेरा बाप?
मज़दूरी करता है सर। कई दिनों से अस्पताल में दाखिल है।
बोलता तो सच है- शुक्ला लड़के को पहचानता था।
तभी चपरासी मीठा और नमकीन प्लेटों में सजाने लगा।
तुम्हीं बताओ, क्या सलूक किया जाए तुम्हारे साथ?
लड़का आँखें झुकाए खड़ा रहा।
गलती का एहसास है? पनीर–पकौड़ा चबाते हुए प्रिंसिपल ने पूछा।
मजबूरी थी सर। नही तो पाप क्यों चढ़ाता?
यानी कि माफी नहीं माँगोगे। प्लेट शुक्ला की ओर सरकाते हुए प्रिंसिपल ने कहा।
शुक्ला का हाथ जेब में गया। वाउचर को गोल कर प्रिंसिपल के डस्टबिन के हवाले कर उठ खड़ा हुआ–आप ही खाइए सर !
 
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