वह एक बहुत बड़ा शहर था, जिसे मैं छोड़ रहा था। वहाँ मेरे दोस्तों की संख्या बहुत ज्यादा थी। अक्सर मेरी शामें खाली नहीं गुजरती थीं।
स्टेशन पर मैं गाड़ी छूटने से लगभग आधा घण्टा पहले पहुँच गया था। मुझे पूरा विश्वास था कि मेरे कई दोस्त स्टेशन पर मुझे विदाई देने पहुँचे होंगे, पर गाड़ी छूटने में सिर्फ़ दस मिनट रह गये थे और कोई भी स्टेशन नहीं पहुँचा था। चाय की तलब हो रही थी। अब तक तो सिर्फ़ इसीलिए दबाता आ रहा था कि दोस्तों के आने पर उनके साथ पिऊँगा, लेकिन अब दोस्तों के आने की उम्मीद कम हो गयी थी, इसलिए चाय के लिए बाहर स्टाल पर आ गया।
चाय पीकर कप रखा तो कोहनी पर किसी के स्पर्श से चौंका। दस–ग्यारह साल की, गड्ढे में धँसी एक जोड़ी आँखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं– कुछ खाने को दे दे न बाबू, सुबह से भूखा हूँ... चाहता तो उसे इग्नोर करके अपने कूपे में जा सकता था, पर ऐसा कर न सका और स्टाल वाले को पन्द्रह पैसे देकर उसे एक पाव रोटी दिलवा दी।
दोस्तों का स्टेशन पर न आना काफी खल रहा था। मन कुछ अजीब–सा हो गया था, भारी–भारी और तल्ख।
ट्रेन के खिसकने तक किसी न किसी के आने की उम्मीद अन्दर के किसी कोने में बची रही। खिसकते–खिसकते ट्रेन प्लेटफॉर्म पार कर गयी। सामने सींखचों के ऊपर बैठा एक लड़का हाथ हिला रहा था।
अजीब बात थी। वह मेरी ओर देखकर हाथ हिला रहा था। दिमाग पर जोर दिया। अरे यह तो वही लड़का था, जिसे मैंने स्टेशन पर पाव रोटी दिलवायी थी। वह बड़े आराम से बैठा एक हाथ से रोटी खा रहा था और दूसरा मेरी ओर हिला रहा था।
मुझे लगा, वह एक लड़का नहीं, पूरा शहर मुझे विदाई दे रहा है। मैंने अपना हाथ खिड़की से बाहर निकाला और उसकी ओर जोर–जोर से हिलाने लगा, हिलाता रहा। कूपे में बैठे और लोग अजीब–सी नजरों से मुझे घूर रहे थे।