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लघुकथाएँ - देश - सुरेश शर्मा
मानव धर्म
पिछले दिनों मुरादाबाद के दंगों के बाद हमारे शहर में भी तनाव का वातावरण चल रहा था। उन्हीं दिनों एक बार मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सिनेमा देखने गया था।
जैसे ही सिनेमा हाल से हम बाहर आए, तो देखा कि सड़क पर भगदड़ मची थी। सभी फुर्ती के साथ भागे जा रहे थे। मैंने मुश्किल से पता लगाया तो मालूम हुआ कि शहर में दंगा–फसाद हो रहा है।
सुनकर मेरी पत्नी और बच्चे भयभीत हो गए। हमारा घर शहर से काफी दूर था। कोई रिक्शा–ताँगा नहीं था।
तभी एक युवक हमारे पास आया और हमारी समस्या जानकर हमें अपनी कार से हमारे घर तक छोड़ने को राजी हो गया।
रास्ते भर मेरी पत्नी मुसलमानों को भला–बुरा कहकर कोसती रही।
वह व्यक्ति सुनकर मुस्कराता रहा।
रास्ते में पत्थरों की वर्षा से कार का पिछला काँच फूट गया। खैर, हम सकुशल घर पहुँच गए।
मैंने सौ रुपए का नोट निकाल कर उस युवक को देते हुए आभार व्यक्त किया। उसने रुपया लेने से इनकार करते हुए कहा -क्या मानव धर्म की कोई कीमत होती है, भाई साहब?
मेरी पत्नी ने उसका परिचय पूछा तो मुस्कराते हुए उसके अपना नाम बताया, ‘‘नजमल हुसैन।’’
और हमारे मुँह पर धुँआ छोड़ते कार चली गई।
 
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