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लघुकथाएँ - देश - सुलक्खन मीत
रिश्ता
भेदी ने जंगीरे से कहा, ‘‘आज रुपालों के घर चोरी हो सकती है।’’
‘‘कैसे?’’ जंगीरे चोर की आँखें फटने को हुई।
‘‘घर वाला घर पर नहीं है।’’
‘‘ठीक है!’’ जंगीरे चोर ने कुतरी हुई मूँछों को ऊपर चढ़ाया।
मुर्गा बोलने से पहले ही जंगीरा चोर भेदी के बताए घर में घुस गया। अगले पल वह ट्रंकों–पेटियों के पास खड़ा था।
तेजो को चोर का शक हुआ। वह चारपाई से उठकर दबे पैरों स्विच के पास पहुँची। बल्ब जला तो सचमुच ही सामने एक आदमी खड़ा था। ‘चोर’ शब्द जैसे उसके गले में ही अटक गया था। तेजो और जंगीरे ने एक–दूसरे को पहचान लिया था। जंगीरे की आँखें एकदम झुक गईं। तेजो ने पूछा, ‘‘ओ जंगीरे, तुझे बहन का घर ही मिला था चोरी करने को।’’
‘‘मैंने सोचा तो था कि तू इसी घर में है।’’ कहकर जंगीरा चोर दहलीज पार करने लगा।
‘‘अब किधर जंगीरे?’’ तेजो ने उसकी बाँह पकड़ते हुए कहा।
‘‘गाँव।’’ जंगीरे ने तेजो की तरफ देखे बिना ही कहा।
‘‘बैठ जा। चाय पी के जाना अब। मैं चाय रखती हूँ।’’
जंगीरा तेजो की बात पर हैरान होता हुआ एक बच्चे की चारपाई पर बैठ गया। चाय आने तक वह पछताता ही रहा। चाय पीकर चलते वक्त जंगीरे ने पतलून में से दस का नोट निकाला। उसने वह नोट तेजो के ठंडे हाथ में दबा–सा दिया।
‘‘ओ जंगीरे यह क्या?’’ तेजो ने मुड़े हुए नोट को देखते हुए पूछा।
‘‘यह भाई का फर्ज बनता है बहन।’’ कहकर जंगीरा एकदम दहलीज पार कर गया।
गाँव में अभी भी शान्ति थी। कहीं भी किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज नहीं आ रही थी।
 
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