शहर कर्फ़्यूग्रस्त था। सड़कें और गलियाँ सूनी पड़ी थी। हर तरफ बंदूकधारी सिपाहियों की गश्त जारी थी। कुछ इलाकों में संगीनधारी फौजी भी गश्त कर रहे थे। यह एक सूनी पड़ी गली का मोड़ था। इस मोड़ पर एक व्यक्ति बड़ी देर से असमंजस की स्थिति में खड़ा था। इस मुकाम से उसका मकान काफी दूर था। लेकिन इस वक्त वह न आगे बढ़ने की स्थिति में था, न पीछे जाने की हालत में। वहाँ वह झिझका–सहमा खड़ा बड़ी उलझन महसूस कर रहा था।
इतने में उसके कान खड़े हुए। पीछे से उसे हलकी–सी पदचाप सुनाई पड़ी। ‘दुश्मन है?’.....यही एक सवाल उसके जेहन में कौंध गया।
पदचाप रफ्ता–रफ्ता करीब से करीबतर होती जा रही थी। बड़ी तेजी के साथ वह सोचने लगा- यहाँ अब ठहरे रहने का सीधा–सा मतलब है, धारदार हथियार से कत्ल! भागकर सड़क पर जाने का अर्थ होगा, गोली का शिकार और निश्चित मौत! अब क्या किया जाना चाहिए?
उसका जेहन कह रहा था, गाय तक को ऊपरवाले ने सींग दिए हैं। अपनी हिफाजत वह खुद कर सकती है। फिर मैं तो एक आदमी हूँ। कुछ किया जाना चाहिए। उसने देखा। पैरों के पास ही उसे एक बड़ा–सा तीखा पत्थर दीख गया। झट से झुककर उसने पत्थर उठाया और आश्वस्त हेाकर वह पलट गया। उसे लगा, जैसे आईना सामने है। उस जैसा कि एक आदमी हाथ में तीखा पत्थर लिए सहमा–सहमा खड़ा था। और...हाथ के पत्थर छोड़कर वे दोनों बगलगीर हो गए।