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मुजरिम
सरदार सुरजीत सिंह सेना से रिटायर्ड मेजर हैं। लम्बा कद भरा–पूरा शरीर। चंडीगढ़ के पॉश सेक्टर में उनकी कनाल की शानदार कोठी है। पिछले वर्ष ही उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी और परिवार के नाम पर अब सिर्फ़ एक बेटा ही है जिसे प्यार से वे ‘शैरी’ पुकारते हैं।
अभी कुछ माह पूर्व उनके परिवार में एक और सदस्य की बढ़ोत्तरी हो गई थी। उन्होंने अल्सेशियन नस्ल की एक कुतिया खरीदी थी और प्यार से उसका नाम रखा था–‘सिल्विया’। इस ‘सिल्विया’ नाम के पीछे भी एक राज था जो सिर्फ़ वही जानते थे। जब वे अविवाहित थे तब सन् 1961 में आपरेशन गोवा के दौरान स्पेनिश मूल की एक गोवानी लड़की सिल्विया पर आशक्त हो गए थे। वहाँ से लौटे तो उसे ढेरों वादे करके आए परन्तु शैरी की माँ तेज कौर की तेजी के आगे कुछ ऐसे बहे कि कभी पीछे लौटने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। उस गौ वानी लड़की सिल्विया के देह की खुशबू अब भी उनकी साँसों में बसी हुई थी।
साथ वाली कोठरी जस्टिस अकरम खान की थी जो उनके अमेरिका बस जाने से खाली पड़ी थी। कोठी की देखभाल उन्होंने अपने बुजुर्ग खानसामा हाजी अहमद अली को सौंप रखी थी जो वहीं सर्वेन्ट क्वार्टर में अपनी बीस वर्षीय बेटी शायना के साथ रहते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के कट्टर सुन्नी मुसलमान हाजी अहमद अली के पास देसी नस्ल का एक कुत्ता शेरू था, जिसे वे बेहद प्यार करते थे। पिछले कुछ दिनों में मेजर साहब महसूस कर रहे थे कि शेरू उनकी सिल्विया को बड़ी ललचाई निगाह से देख रहा है। एक दो–बार उसने कम्पाउन्ड लाँघकर सिल्विया से मिलने की कोशिश भी की थी। मेजर साहब कई बार हाजी अहमद को इस बात के लिए डॉट चुके थे कि वह शेरू को बाँधकर रखें। हाजी अहमद मेजर साहब का गुस्सा जानते थे। वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते थे कि शेरू उनकी कोठी में न जा पाए परन्तु शेरू तो जैसे सावन का अन्धा था, हमेशा तरकीबें लड़ाया करता था। अब तो वह मेजर साहब से भी नहीं डरता था।
बसन्त का आगमन हो चुका था। गुलमोहर के पेड़ फूलों से लदे खड़े थे। सिल्विया भी अब बेचैन रहने लगी थी। सुबह जब वे उसे लेकर वॉक पर निकलते तो शेरू भी पीछे–पीछे हो लेता। दोनों के बीच चलने वाली आँख मिचौनी की वे भी समझते थे। उन्होंने कई बार शैरी को कहा भी था कि वह सिल्विया को मेजर चोपड़ा के ‘बॉक्सर’ से मिला लाए। वे नहीं चाहते थे कि सिल्विया की कोख से देसी बच्चे पैदा हों। कुत्ते की नस्ल बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। परन्तु शैरी था कि अपनी हीरो होंडा पर दिन भर लड़कियों के कॉलेज के चक्कर लगाया करता। उसे अपने से ही फुरसत नहीं थी तो सिल्विया की क्या चिन्ता होती।
सिल्विया की बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही थी। उधर शेरू भी उनके कम्पाउन्ड में घुसकर सिल्विया की एक नजर पाने के लिए बेचैन रहता। मेजर साहब को देख, वह आँखें चुराकर घृणा से मुँह फिरा उनके ही लॉन के किसी पौधे पर अपनी टाँग उठाकर तनाव ढीला कर कम्पाउन्ड की बाउण्डरी पर बैठ जाता–घात लगाकर। उसके पत्थर इरादे देखकर मेजर साहब अब पूरे दिन सिल्विया की चौकसी करते। पकी हुई फसल पर से किसान जिस तरह पक्षियों को उड़ाया करते हैं ; उसी तरह वे दिन भर शेरू को भगाया करते, फिर हाजी अहमद अली पर आकर अपना गुस्सा निकालते। उस दिन शेरू की भी जमकर पिटाई होती और उसे खाना भी नहीं मिलता;परन्तु अगले दिन शेरू मार्निग वॉक पर फिर सिल्विया के पीछे होता।
उस दिन तो हद ही हो गई। मेजर साहब ने सोचा था, कल वे खुद उसे मेजर चोपड़ा के बाक्सर से मिलाकर लाएँगे। रात सिल्विया को उन्होंने अपने बैडरूम में ही बाँध लिया था। जवान बेटी की भी वे इस तरह रखवाली नहीं करते। ‘परन्तु सिल्विया नासमझ है बेचारी अपना भला बुरा नहीं सोच सकती’–वे सोचते।
सुबह के लगभग चार बजे होंगे जब अचानक कुछ अजीब सी आवाजों से उनकी नींद टूट गई। देखा तो शुरू उनके ही बेडरूम में सिल्विया के साथ आपत्तिजनक हालत में था। मेजर साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा–‘सिल्विया के होने वाले बच्चे देसी नस्ल के’। उन्होंने दीवाल पर टँगी रायफल उठाई। खतरा भाँपकर शेरू भी नौ–दो ग्यारह हो गया। मेजर साहब दनदनाते हुए उसके पीछे दौड़ें उन्नीस सौ बासठ के चाइना वार में जितनी नफरत उन्हें चीनी सिपाहियों से नहीं हुई होगी उससे कहीं अधिक नफरत उन्हें शेरू से हो गई। शेरू कम्पाउन्ड फाँदकर अकरम साहब की कोठी में जा छुपा। गुस्से में आकर मेजर साहब ने एक जोरदार लात हाजी अली अहमद के सर्वेन्ट क्वार्टर के दरवाजे पर लगाई–ओये कित्थे है तेरा ओ देसी कुत्ता....किन्नी वार केहा ऐ ओनू बन्न के रक्खेया कर.....अज नई छड़ना–उन्होंने रायफल लोड कर ली। हाजी अहमद अली एक बार तो काँप उठे। उनकी आँखों के सामने शेरू का तड़पता हुआ शरीर नाच उठा। उन्होंने मेजर साहब के पैर पकड़ लिए–उसे मारना मत साहब, हम आज ही उसे कहीं दूर छोड़ आएँगे...अब कभी वह आपको दिखाई नहीं देगा–वह गिड़गिड़ाने लगे। लेकिन मेजर साहब पर तो जैसे भूत सवार था। उन्होंने रायफल का कुंदा उनके सिर पर दे मारा, खून की एक धारा बह निकली। वह फिर भी गिड़गिड़ाते रहे–उसे मारना मत साहब, माफ कर दो उसे...उसे मारना मत साहब.....
तब तक दो चार लोग और भी कोठियों से निकल आए थे। सभी मेजर साहब की हाँ में हाँ मिला रहे थे। आखिर एक देसी कुत्ते की इतनी हिम्मत कैसे हुई कि मेजर साहब की सिल्विया की नस्ल खराब करे। शेरू की खोज में वह भी मेजर साहब के साथ जुट गए। तभी उन्हें खयाल आया कि शेरू कहीं गैराज में न जा छिपा हो। गैराज वैसे भी खाली पड़ा रहता था। उन्होंने दो लोगों को डंडा लेकर गैराज के अन्दर जाने को कहा और स्वयं निशाना लेकर बाहर पोजीशन सम्भाल ली। डरते–डरते जब उन लोगों ने गैराज के गिरे हुए शटर को ऊपर उठाया तो...
मेजर साहब किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए। अस्त–व्यस्त हालत में उनका बेटा शैरी और हाजी अहमद की बेटी शयाना सिर झुकाए खड़े थे। मेजर साहब की रायफल का निशाना अब भी उसी ओर था। उनकी हाथों की उँगलियाँ काँपने लगीं। उनकी आत्मा उन्हें कहीं भीतर से कचोट रही थी–चला गोली....मुजरिम बदल गया तो क्या हुआ.....जुर्म तो वही है....जुर्म तो वही है।
एकाएक मेजर साहब की रायफल पर पकड़ ढीली पड़ गई। भारी कदमों से वे लौट पड़े। सर्वेन्ट क्वार्टर के बाहर हाजी अहमद अली बेहोशी की हालत में बड़बड़ा रहे थे–‘उसे मारना मत साहब.....माफ कर दो उसे’। पास ही अपराधी बना शेरू मूक खड़ा था। मेजर साहब ने एक दृष्टि शेरू पर डाली फिर हाजी अहमद अली के बूढ़े शरीर को बाँहों में उठा अस्पताल ले जाने के लिए कार की तरफ ले चले।
 
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