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लघुकथाएँ - देश - जयश्री राय
पत्थर और भगवान
वह बड़ा -सा बदसूरत पत्थर न जाने कब से रास्ते के किनारे पड़ा हुआ था। हर आने–जाने वाला मौसम उसे कुछ न कुछ देकर जाता था कभी उस पर धूल उड़ती। कभी झमाझम पानी बरसता तो कभी सावन की हरियाली सड़कर काई बन जाती। अपने एकरस जीवन में वह इन्हीं से अपना दिल बहला लेता था। समय के अनगिन वर्षों में उसका रूप भी बदलता ही रहा था। कभी वह लाल, चिकना और चमकीला हुआ करता था, आज खुरदरा, काला और बदसूरत था! उसके नीचे की जमीन विषैले कीड़ों, मकोड़ों का आश्रय स्थल थी। उनके असंख्य अंडे फूटते, वे रेंगते, बजबजाते....उसका शरीर सिहरता रहता, घिनाता रहता। वह कातर होकर आसमान की तरफ देखता, ‘‘ईश्वर! मुझे मुक्ति कब मिलेगी, कितने युग हो गए.....अहिल्या की तरह मुझ पर तुम्हारी कृपा दृष्टि कब पड़ेगी!’’ वह साँस के लिए छटपटाता, कितनी घुटन है! उसकी शिराओं में जीवन स्तब्ध पड़ा रहता, धड़कने जमीं रहतीं। उसका शरीर पूरी सृष्टि का स्पंदन महसूसता निर्वाक् पड़ा था। उसकी आँखों में आँसुओं का मृत सागर जम गया था। नहीं! कहीं करुणा की एक बूँद नहीं! स्वर्ग की छाया बहुत दूर है, धरती तो कब से थी ही विरूप! वह हताश पड़ा रहता। मगर, उस नि:शब्द कोलाहल का कोई साक्ष्य न था। वह बस, नियति के क्रूर हाथों से गढ़ा एक निष्प्राण पत्थर था। पत्थर अपनी कमनसीबी पर रोए भी तो कैसे!
...और फिर एक दिन किसी राह चलते मुसाफिर की उसे ठोकर लग गई। दर्द तो उसे बहुत हुआ, मगर अपनी विवशता में मूक पड़ा रहा। मगर, वह व्यक्ति चोट खाकर तिलमिला उठा। चाणक्य की तरह उसने भी अपने शत्रु का समूल नाश करने का प्रण कर लिया और उसे कुश की तरह जमीन से उखाड़कर दूर फेंक आया वह चकित, भ्रमित अभी अपने चारों ओर के नए वातावरण को देख ही रहा था कि कुछ बच्चे खेलते हुए उसके आसपास थोड़े फूल, पत्ते बिखराकर चले गए। फूलों से अच्छी खुशबू आ रही थी, वह उन्हें सूँघ ही रहा था कि कुछ सुहागिने उधर से पूजा की थाली लिए मंगल गीत गाते हुए निकलीं। उन सबने उस पर सिन्दूर का टीका लगा दिया। लाल, पीला होकर वह पास बहती नदी में अपना चेहरा देखने लगा, अरे! उसका चेहरा तो लंगूर की तरह लग रहा है! अभी वह अपना अत्यन्त दीन–हीन सा व्यक्ति आकर उसके सामने हाथ जोड़कर रोते हुए प्रार्थना करने लगा, ‘‘ईश्वर! मुझ पर दया करो....!’’ यह सुनकर वह बेतहाशा चौंक पड़ा, अरे! वह तो एक ही पल में पत्थर से भगवान बन गया...उस, दुर्बल, असहाय व्यक्ति को पता नहीं था कि अभी–अभी उसकी आस्था ने एक पत्थर को भगवान बना दिया है। अब वह भी हाथ जोड़े गिड़गिड़ाए जा रहा था। उस अनगढ़ पत्थर ने अचानक स्वयं को बेहद बलशाली महसूस किया। लगा, चाहे तो वह पहाड़ बन सकता है, चाहे तो आसमान से टकराकर उसमें छेद पैदा कर सकता है, अब उसने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए उस मनुष्य के सामने जम्हाई लेकर आँखें बंद कर लीं, अब वह ईश्वर हो गया है, अब वह आराम से सो सकता है, लोग ईश्वर की योग निद्रा की नहीं निंदा करते, बस आँखें खोलकर उन पर कृपा दृष्टि डालने की प्रार्थना करते रहते हैं, पत्थर से भगवान बनाने वाला इंसान स्वयं हमेशा इतना ही विवश रहता है!
 
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