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लघुकथाएँ - देश - दिलीप कुमार
परसेंट
‘‘खैराती के बताए हुए नुस्खे को आजमाऊँगा जरूर ज्यादा–से–ज्यादा क्या होगा। टाँगें हीतो टूट जाएँगी। वैसे भी मेरे चलने या न चलने से ज्यादा फर्क थोड़े ही पड़ता है। और फिर ये पान की चलती–फिरती दुकान मेरे गले में तो लटकी ही रहती है। अगर अपाहिज भी हो गया तो भी पान की ये दुकान अपने गले में लटकाए रह सकूँगा। फिर क्यों ना खैराती को उसका मुँह माँगा परसेंट दे दूँगा।’’ यही सोच रहा था जुमेराती। खैराती ने जुमेराती की मनोदशा को भाँपते हुए कहा ‘‘डर मत जुमेराती। मारुति और उसके जैसे दूसरी छोटी कारें फूल जैसी हैं। कितनी बार लड़ा हूँ मैं इन गाडि़यों से। ये अगर ऊपर से गुजर भी गई तो समझो कि पैरों के ऊपर से सायकल का पहिया गुजरा हो। और बस इतनी सी बात के लिए हजार–दो हजार मिल जाएँगे। हाँ मगर मेरा परसेन्टेज मुझे जरूर मिल जाना चाहिए। आखिर तुझे अपने बेटे का टी.बी. का इलाज भी तो करवाना है और तेरी बीवी।’’
जुमेराती ने खैराती की बात को काटते हुए कहा, ‘‘उसी की चिन्ता तो मुझे खाए जा रही है। अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी अन्धी बीवी का क्या होगा? उस बेचारी को तो ये भी नहीं पता कि मरा कैसे जाए?’’ जब तक एक लाल रंग की मारुति सड़क पर आती हुई नजर आई। खैराती की आँखों में चमक आ गई। वो जल्दी से बोला ‘‘चल जुमेराती गाड़ी आ गई। तूने भी क्या किस्मत पाई है। मारुति ही है। बिल्कुल फूल ही समझ इसे। तुझे सब याद है ना, कैसे करना है? बस तू सड़क पर से उठना मत। बाकी सब मैं सम्भाल लूँगा। मगर मेरा परसेन्ट याद रखना।’’
खैराती के जोर देने पर जुमेराती ने खुद को सड़क पर आगे कर दिया और आँखें बन्द करे छलाँग लगाई। थोड़ी देर बाद जुमेराती सड़क पर शांत पड़ा था और खैराती का वहाँ नामोनिशान तक न था। दरअसल जुमेराती ने जब आँखें बंद करके मारुति कार के आगे छलाँग लगाई थी तभी दूसरी दिशा से आ रहे एक ट्रक ने उसे रौंद डाला था। जुमेराती के प्राण–पखेरू उड़ चुके थे और अब वो हर चिन्ता से मुक्त था। दूसरी तरफ खैराती बड़ी तेजी से किसी वकील की तलाश में भागा जा रहा था। उसने ट्रक का नम्बर नोट कर लिया था। अब जुमेराती के मौत के मुआवजे की रकम में उसका ‘परसेन्टेज’ बढ़ना लाजिमी जो था।
 
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