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लघुकथाएँ - देश - अरुण कुमार
हलवा
फूली भागती–दौड़ती हुई सी आई और हलवे–चने का प्रसाद पाने वाले लोगो की भीड़ में शामिल हो गई। हलवे–चने का प्रसाद पाने के लिए ही तो वह इत्ती सुबह उठकर यहाँ आई है। गए बरस पड़ोस वाले रामटिकाए के यहाँ जागरण में ही जरा- सा हलवा चना चखा भर था, उसने। उस दिन देर से पहुँची थी। वह एक चक्कर पंडाल में लगाकर वह रामटिकाए के दरवाजे पर जा पहुँची थी। राटिकाए की घरवाली ने पहले तो यह कहकर कि खत्म हो गया है, उसे टालने की कोशिश की थी। पर जब वह वहाँ से टस से मस न हुई तो रामटिकए की घरवाली ने बड़ा ही अहसान–सा जताते हुए, जरा सा हलवा उसकी हथेली पर टिका दिया था। उसके बाद आज ही तो उसके हाथ यह सुनहरा मौका लगा है। वह एक–एक कर कई दोने चट कर चुकी है। खाली दोनों का एक ढेर–सा ही बन गया है। उसके सामने। पर कम्बख्त न तो उसका पेट भर रहा है और न ही मन। कहीं उसके द्वारा खाली किए गए दोनों पर किसी की नजर न पड़ जाए, इस डर से उसने सबसे नजरें बचाकर उस ढेर को पैर मारकर बिखरा दिया था।
अचानक प्रसाद वितरण करने वाला व्यक्ति आँखों में झाँकता हुआ चिल्लाया, ‘‘ऐ छोरी! कै बार लेगी? चल भाग यहाँ से.....!’’
‘‘अंकल जी! दे दो न एक....एक ही बार लिया है। वो मेरा भाई छोटा है न...उसके लिए दे दो....’’
अभी वह अपनी बात पूरी कह भी न पाई थी कि किसी ने उसे कान से पकड़कर भीड़ से बाहर खींच लिया और उसके गाल पर जोर से एक थप्पड़ लगाया...!
‘‘अरी उठ, कम्बख्त! काम पर जाने का बखत हो गया है और तू सपना टूट गया था। उसने डबडबाई आँखों से एक बार चारों ओर देखा और माँ के चेहरे पर आँखें टिकाते हुए कहा, ‘‘तू हलवा कब बनाएगी री, माई....?’’
 
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