गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
गुब्बारे का खेल
छोटे बच्चों का प्रिय खिलौना गुब्बारा होता है। अपने जैसे ही गोल मटोल गुब्बारे को छूता है ता ऐसा पुलकित होता है, जैसे दोस्त से हाथ मिलाया हो। गुब्बारे के साथ ही उसकी आँखें भी विस्मय, लालित्य, चहक और मुस्कान से फैलने लगती हैं, गुब्बारा मिलने से उसके रोएँ–रोएँ से थैंक्यू झरने लगता है, तब वह बड़ा प्यारा मीठा अच्छा सा लगने लगता है। इसी चाव से मेरी जेब में पाँच- सात गुब्बारे रहते ही हैं। घर पड़ोस या परिचित का छोटा बच्चा जब पास आता हे तो मैं उसे गुब्बारा देता हूँ। गुब्बारा फुलाने, धागा बाँधने से उसे देने तक की एक मिनट की यह बचकानी दोस्ती कुछ–कुछ मेरी आदत में शुमार हो गई है।
कभी–कभी मैं घर के बच्चों से एक खेल खेलता हूँ। उसे टॉफी या गुब्बारा दोनों दिखाते हुए पहले उसे ललचाता हूँ। वह हाथ बढ़ाता है तो मैं हाथ पीछे का कहता हूँ, नहीं कोई एक। गुब्बारा या टॉफी। बच्चा पेशोपेश में पड़ जाता है। टॉफी की मिठास और गुब्बारे की छुअन, वह दोनों में उलझ जाता है कभी इधर हाथ बढ़ाता है तो कभी उधर। रुआँसे की हद तक उसे तरसाते हुए आखिर में मैं उसे टॉफी और गुब्बारा दोनों दे देता हूँ। इस दुगुनी खुशी से वह चौगुना चहकता है। उसकी चहक ओवर फ्लो हो बहने लगती है। अपने मजे के लिए इसे इतनी देर तरसाया। इस मासूम से अपराधबोध को दूर करने के लिए मैं बच्चे को चूम लेता हूँ।
उस दिन एक–दो–ढाई साल का काले गुब्बारे जैसा एक भिखारी का बच्चा घर के दरवाजे पर हाथ फैलाए खड़ा था। भिखारी का बच्चा चलना सीखते ही कमाना सीख जाते हैं। मुझे दया सी आई। उसे एक रुपया देने को जेब में हाथ डाला तो मेरा हाथ जेब में रखे गुब्बारे पर पड़ा। सोचा,यह बच्चा कभी गुब्बारे से नहीं खेला होगा। इसके हाथ में पैसे और रोटी कई बार आए होंगे, यह गुब्बारा भला कौन भीख में देगा? आज अचानक गुब्बारा पाकर यह कितना खुश होगा। दूसरे बच्चों की तरह उसकी आँखें भी विस्मय, लालित्य, चहक और मुस्कान से फैल जाएँगी। आसपास देखा, कोई नहीं था। उसे दुगुनी खुशी देने के खयाल से मैंने एक हाथ में रुपया और दूसरे हाथ में गुब्बारा लिए कहा, ‘‘कोई भी एक ले लो, गुब्बारा या रुपया।’’ वह दोनों को देखता रहा। गुब्बारे को इतने करीब से देख वह रोमांचित हुआ जा रहा था, पर उसकी हथेलियों को रुपए की आदत थी। एक तरफ उसका जीवन था, दूसरी तरफ उसका सपना। वह चुन नहीं पाया। कभी इस हाथ को तो कभी उस हाथ को देखता रहा। घर के बच्चे की तरह ये रुआँसा तो हो नहीं सकता था। बस, कभी इधर तो कभी उधर देखता रहा। हाथ बढ़े नहीं, फैले के फैले रहे। कुछ देर तरसाने के बाद आखिर में मैंने रुपया और गुब्बारा दोनों दे दिए। सोचा, यह भी चौगुणा चहककर ओवर फ्लो हो बहने लगेगा। जैसे एक हाथ में रोटी और एक हाथ में सपना लेकर दुनिया मुट्ठी में कर ली हो।
पर उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी। वह चुपचाप रुपया और गुब्बारा लिए अजीब सी नजरों से देखते हुए मुझ पर एक मासूम–सा इल्जाम लगाते हुए चला गया,
‘‘जब दोनों ही देने थे तो मुझे इतनी देर तरसाया क्यों? और जब तरसाया ही है, तो फिर मुझे चूमा क्यों नहीं, अपने बच्चे की तरह.....’’
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above