‘‘बाबा, आज भी आपकेा कोई डाक्टर नहीं देखने आया। आपको तो तीन दिन हो गए हैं दाखिल हुए।’’ रात की पाली वाली नर्स ने मरीज के बैड के पायतानें साथ लगी मेज पर रखी उसकी फाल के पृष्ट उलटते हुए पूछा। ‘‘नहीं सिस्टर’, मरीज ने धीमें से निराशा पूर्ण स्वर में उत्तर दिया।
मरीज की आयु ‘‘बाबा’ कहे जाने लायक नहीं थी परन्तु उसकी बढ़ी हुई दाड़ी को देखकर नर्स ने उसे बाबा कहना शुरू कर दिया था। वह दिल्ली में अपनी आँख का इलाज करवाने आया था। उसे यहाँ दाखिल हुए तीसरा दिन था।
नर्स ने मरीज की आँख में दवाई की बूँदे टपकाते हुए कहा, ‘‘आपकी आँख बहुत ज्यादा सूज गई है बाबा। पानी भी खूब बह रहा है आँख से। डाक्टरों की ऐसी लापरवाही इतने बड़े सरकारी अस्पताल में शोभा नहीं देती। आपको खुद उठकर तीसरी मंजिल में स्थित यूनिट–4 के डाक्टर के जांच कक्ष में चला जाना चाहिए था या फिर आपको वही तरीका अपनाना चाहिए था जो बैड नं. 10 के मरीज और उसके रिश्तेदारों ने अपनाया। आपने देखा नहीं कल रात उन्होंने किस प्रकार बरामदे में खड़े होकर अस्पताल प्रशासन के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए थे और नसोंर् ने तुरन्त फोन करे मैडिकल सुपरिन्टेन्डेंट को वहाँ बुला लिया ओर फिर मरीज की शिकायत तुरन्त दूर कर दी गई थी।’’ युवा नर्स स्वभाव से कोमल होने के कारण मरीज से सहानुभूति रखती थी। शायद इसीलिए उसने मरीज को समझाते हुए कहा था।
मरीज अकेला था। उसके साथ उसका कोई संबंधी नहीं था। ‘‘सिस्टर मैंने अपना सारा जीवन दूसरों के लिए लड़ते हुए बिताया है। मेरे सामने किसी के साथ अन्याय किया जाए अथवा उस पर अत्याचार किया जाए मैं कभी सहन नहीं कर पाया लेकिन स्वयं के लाभ के लिए इस तरह लड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता। आपकी सलाह एवं सहानुभूति के लिए धन्यवाद।’’ मरीज ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया।
अचानक सिस्टर का स्वर कुछ कठोर हो आया–‘‘हुंह! जो इन्सान अपनें हक के लिए नहीं लड़ सकता वह कभी दूसरों के लिए लड़ा होगा। मैं नहीं मान सकती।’’ नर्स बुड़बुड़ाती हुई चली गई।
000