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लघुकथाएँ - देश - नीलम राकेश
नजरिया
‘‘डाक्टर साहब, मेरे बेटे को बचा लीजिये । यह मेरा इकलौता बेटा है, इसे कुछ हो गया तो मैं जीते जी मर जाऊॅंगा........................’’.रोते हुये मैंने डाक्टर के पैर पकड़ लिये ।
‘‘हिम्मत रखो मूर्ती, हम कोशिश कर रहे हैं । जल्दी से ओ निगेटिव ग्रुप के खून की व्यवस्था करो । नहीं तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे ।’’ कहते हुए डाक्टर पुन: आॅपरेशन थिएटर में चले गये ।
रोती हुई पत्नी पर नजर डालकर मैं बाहर भागा । जेब में रूपये लिए मैं यहॉं से वहॉं भटकता रहा । दोस्त भी काम नहीं आये । अनिष्ट की आशंका लिये मैं कॉंपते कदमों से अस्पताल वापस आ गया । मेरे आॅंसू थम नहीं रहे थे ।
बरामदे में ही थकी किन्तु मुस्कुराती हुई पत्नी कुछ दवाईयॉं लिये नर्स सरिता के साथ वार्ड में जाती दिखाई दी । मैं उनके पीछे लपका ।
‘‘सरिता बहन ने अपना खून देकर हमारे बेटे को बचा लिया ।’’ नर्स का हाथ थाम कर पत्नी बोली ।
किंर्कव्यविमूढ़ सा मैं खड़ा रह गया। मेरा नजरिया ही बदल गया था । यह वही सरिता नर्स है जिसकी भलमनसाहत का मैं सदा मजाक उड़ाया करता था । पिछले दस वर्षों से मैं इस अस्पताल में वार्ड ब्याय का काम कर रहा हूँ। मरीज के परिजनों से रूपये लेकर ही मैं उनकी कोई सहायता करता रहा हूँ, जबकि सरिता सबकी सहायता को तैयार रहती थी । जैसे सबका दर्द उसका अपना है, मेरा उससे इसी बात का झगड़ा था । वह हमारे ‘‘सिस्टम’’ को तोड़ रही थी । परन्तु आज अपनी इस सहृदयता के कारण वह मुझे देवी प्रतीत हो रही थी । दिल में हिलोर उठी कि उसके चरणों में गिर कर क्षमा मॉंग लूँ । किन्तु इतना ही कह सका, ‘‘सरिता बहन, मैं जिन रूपयों के पीछे भागता रहा वो मेरे काम नहीं आये । काम आई तो तुम्हारी नेकी, तुम्हारी दयालुता । आज मैं कसम खा रहा हूँ, अब तुम्हारे रास्ते पर ही चलूंगा और पराये दर्द को रूपयों में बदलकर जेब में नहीं रखूंगा ।’’
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