छब्बीस जनवरी का दिन। उल्लास और सौहार्दपूर्ण वातावरण, यानी सभी अधिकारी एवं कर्मचारी गणों के चेहरे पर मुस्कान। ध्वजारोहण हुआ। सलामी हुई। अधिकारी ने शपथ ग्रहण कराई कि हम निष्ठा और ईमानदारी से अपना कर्तव्य पालन करते रहेंगे और बाद में अपना भाषण दिया। जिसका सार था कि हमें अपने सभी कार्य, चाहे छोटे हों या बड़े निष्ठा और कर्त्तव्य भावना से स्वयं करते हुए देश की अखण्डता को मजबूती प्रदान करना चाहिए...।
मीठा–मीठा भाषण किसी भी अधीनस्थ के गले से नीचे नहीं उतर रहा था। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी धीरे से फुसफुसाया, ‘‘साहब भाषण तो अच्छा देते हैं ;लेकिन हमसे ऑफिस के काम करवाने की बजाय घर में खाना बनवाते हैं, यानी की हम उनके तथा उनके बीबी–बच्चों के बँधुआ मजदूर....।
उसके पास खड़ा आरक्षी मुस्काया और हल्के से कोहनी मारकर फुसफुसाया, ‘‘यार कह तो बिल्कुल सच रहे हो कि साहब पास में रखी बोतल में से अपने आप गिलास में पानी पीने के लिए नहीं डाल पाते हैं, उसके लिए भी घण्टी बजाकर मुझे बुलाते हैं, यानी तुम उनके घर पर काम करते हो और मैं ऑफिस में, यानी हम हुए न गुलाम....।’’
अधिकारी का भाषण खत्म होते ही वातावरण तालियों से गूँज उठा।
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