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लघुकथाएँ - देश -जया नर्गिस
‘‘बिल्कुल माँ जैसी......’’
बड़े शहर के बड़े रेलवे स्टेशन के बड़े प्लेटफार्म के एक अंधेरे कोने में दोनों लड़के अधनंगे बदन और खाली पेट सर्द रात का मुकाबला करते हुए आपस में बतियाने लगे,
‘‘यहाँ तू कबसे है?’’
‘‘पता नहीं.....और तू?’’
‘‘मैं...? तेरे माँ–बाप नहीं हैं?’’
‘‘नहीं......मेरी माँ मुझे यहीं पैदा करके मर गई थी। और तेरी?’’
‘‘मेरी....? मेरी माँ पिछली ठंड में इसी जगह सोते–सोते अकड़ गई थी.....मैं तो मजूरी करके उसकेे लिए कम्बल लाना चाहता था....पर....’’ कुछ देर तक दोनों चुप रहे।
‘‘ऐ.....कैसी थी तेरी माँ?’’
‘‘पता नहीं...’’
इस सवाल ने या माँ को कम्बल ने ओढ़ा पाने के मलाल ने पहले की आँखों को नम कर दिया। दूसरे का जी किया कि उठकर पहले के आँसू पोंछ दे। मगर घुटनों को कस कर भींची बाहों ने ठंड के डर से खुलने से इंकार कर दिया।
‘‘बता न....कैसी थी तेरी माँ.......’’
पहला देा क्षण के लिए कहीं दूर निकल गया....फिर वापस लौटकर बोला,
‘‘बिल्कुल माँ जैसी......’’
छोनों को लगा कि रात की जानलेवा ठंड में अचानक कहीं से हल्की–सीर गर्माहट घुलने लगी है।
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