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जंगलीपन
बहुत दिनों बाद गाँव जाना हुआ था। वापसी में गाँव के पास स्थित रेलवे स्टेशन पर बचपन के एक मित्र से भेंट हो गई। पुरानी यादें ताजा हो उठीं। गले लगकर कुछ पलों के लिए वे एक दूसरे में खो गए, फिर व्यक्तिगत चर्चा होने लगी।
‘‘बहुत दिनों बाद दिखाई पड़े, कहाँ रह रहे हो?’’
‘‘दिल्ली में एक कम्पनी में काम करना हूँ, छुट्टी मिलती नहीं, कहीं आना–जाना नहीं हो पाता’’
‘‘फिर कैसे आए?’’
‘‘बापू को ले जाने के लिए उन्हें डॉक्टर को दिखाना है।’’
‘‘उन्हें क्या हो गया है?’’
‘‘पैरों में सूजन, चलने–फिरने में परेशानी।’’
‘‘अब कैसे हैं?’’
‘‘काफी आराम हैं पहले चलते समय पैर लड़खड़ाते थे, अब ठीक से चल लेते हैं.... इसलिए सोचता हूँ एक बार फिर डॉक्टर को दिखा दूँ।’’
‘‘बापू कहाँ हैं?’’
‘‘वहाँ सामने किसी से बतिया रहे हैं।’’
‘‘इन्हें अपने पास क्यों नहीं रखते–खेती तो अब इनसे होती नहीं–वहीं तुम्हारे साथ आराम से रहें।’’
‘‘कई बार ले जा चुका हूँ.....लेकिन ये रहते कहाँ हैं दो–चार दिन बीते नहीं कि गाँव लौटने की जिद करने लगते हैं।’’
‘‘इन्हें तुम्हारे पास अच्छा नहीं लगता होगा।’’
‘‘इनके लिए रंगीन टी.वी लगवा दिया है, कमरे में ए.सी. भी लगा है फिर भी मन नहीं लगता इनका वहाँ।’’
‘‘फिर क्या बात है?’’
‘‘कहते हैं दम घुटता है। मन खेत में घूमने को और चौपाल पर बैठकर बतियाने को करता है। सुख–सुविधा छोड़ यदि उन्हें यही जंगलीपन पसंद है तो मैं क्या करूँ?’’
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