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आलोक स्तम्भ
‘साहित्य के क्षेत्र में आलोक–स्तंभ अब लुप्त हो गए हैं’, पत्रिका में यह पंक्ति पढ़ते ही सिद्धार्थ के मुँह से अनायास निकल पड़ा, ऐसा कैसे हो सकता है? डॉ. राजेश्वर क्या किसी आलोक–स्तंभ से कम हैं? हिन्दी एवं संस्कृत में पी–एव.डी. हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका बड़ा नाम है। कई संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद करने के साथ–साथ कई पुस्तकें भी लिख चुके हैं। मैं तो उन्हें आलोक स्तम्भ ही मानता हूँ। यह पत्रिका वाले भी न जाने क्या–क्या छाप देते हैं। डॉ. राजेश्वर के मार्गदर्शन में अभी कुछ दिन पूर्व ही उसने अपना शोध काय्र प्रारम्भ किया है।
लगभग छह महीनों के कड़े परिश्रम के बाद उसने प्रथम अध्याय पूरा किया और डॉ. राजेश्वर को जाँचने के लिए दिया। डॉ. साहिब ने उसे एक सप्ताह बाद आने के लिए कहा। फिर सप्ताह के बाद कई सप्ताह बीतते गए। डॉ. साहब के घर के चक्कर काट–काट कर सिद्धार्थ का मनोबल टूटने लगा था परन्तु डॉ. साहब संतुष्ट नहीं हो रहे थे। फिर एक दिन जब वह डॉ. साहब के घर पहुँचा, तो उन्होंने उसका परिचय एक अन्य छात्र से करवाते हुए कहा, ‘‘सिद्धार्थ! इनसे मिलो, यह राकेश हैं। बड़ा होनहार छात्र है। इसका शोधकार्य अब समाप्ति पर है, यह तुम्हारी भी सहायता करेगा।’ सिद्धार्थ ने जब डॉ. राजेश्वर से अपनी फाइल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘राकेश, समझाओ इसे कि काम कैसे किया जाता है। मुझे अभी देर हो रही है, मुझे किसी गोष्ठी में जाना है’, कह कर वे चले गए।
सिद्धार्थ ने मायूसी से राकेश की तरफ देखा तो राकेश धीरे से उसे समझते हुए बोला, ‘यार, समझा करो। गुरुजी की एक अध्याय जाँचने की दक्षिणा 5,000 रुपये है।’ सिद्धार्थ अवाक्- सा उसकी तरफ देखता रह गया। उसके मस्तिष्क में यही वाक्य गूँज रहा था, ‘साहित्य में आलोक स्तम्भ अब लुप्त हो गए हैं।’
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