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जीने की राह
लोहे के सरियों से लकदक हाथ–रेहड़ी के जुआ को अपने पेट से सटाकर खींचता हुआ, वह गंतव्य की ओर जा रहा था। जिस रास्ते को से तय करना था, उसमें कहीं टायर धँसता था, कहीं खड्डे भरे थे, कहीं नुकीले पत्थर खड़े थे, कहीं काँटे–कंकरीट पड़े थे। आधा किलोमीटर का रास्ता पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढ़ने से भी ज्यादा कष्टदायी महसूस हुआ था उसे। हालाँकि मौसम सर्दी का था, लेकिन उसके बदन पर पसीना था। चलते–हंकते उसको हाँफी छूट जाती, तो वह रेहड़ी के जुआ की मूठ जमीन पर टिकाकर सुस्ताने बैठ जाता। जेब से बीड़ी निकालकर उसे फूँकता,गीली मिट्टी की लुगदी खून के उद्गम स्रोतों पर रख उन्हें दबाता तो साँस जुड़ती, फिर रेहड़ी खींचता। डामर की सड़क आती, उसके पंजों से निकलते लहू के चकत्ते पड़ जाते।
सुमों के ठुके तैनालों की खटपट के साथ एक घोड़ा दौड़ता हुआ उसे पीछे छोड़ गया था।
सामान छोड़ने के बाद वह घर आकर सीधा खाट में जा गिरा और जोर–जोर से कराहने लगा। उसकी पत्नी रोज की तरह गर्म पानी की बाल्टी लाकर उसके पास बैठ गई। वह फाहों को गर्म पानी में डुबोती और उसके तलवों को सेंकती थी। गर्म पानी के फाहों की रगड़ से जब गीली मिट्टी बह गई तो घावों का मुँह चमकने लगा। उसकी पत्नी ने घावों में धंसे छोटे–छोटे कांटे, पत्थर की किरचें, लकड़ी की एक लम्बी फाँस खींची। वह एक टीसभरी हे–हे के साथ सिकुड़कर रह गया था।
अपनी पति की दुर्दशा देखकर उसका मन पीड़ा से भर आया था। विफारित नेत्रों में आँसू डबडबाने लगे थे। रोती–सी बोली, ‘‘अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। इस तरह कितने दिन रह पाओगे?’’
उसने अपने हड़ीले चेहरे में धंसी छोटी–छोटी आँखों को टिमटिमाकर अपनी पत्नी को समझाय, ‘‘जूतियाँ चार दिन नही पकड़ेंगी। पैसे बेकार। तैनालवाले के पास जाऊँगा कल, वह घोड़ों की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे....।’’
पति–पत्नी दोनों एक–दूसरे से लिपट गए और देर तक रोते रहे।
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