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उसका पता
उस बड़ी–सी इमारत के ‘वेटिंग हॉल’ में, तरतीब से लगी कुर्सियों में से एक पर बैठे बुजुर्ग रामलाल, गहरे चिंतन में डूबे थे। सारी जिंदगी बैंक में क्लर्की करते हुए गुजर गई। एक लड़का था, पढ़ाया–लिखाया, अपनी इच्छाओं को दफन करके उसे काबिल बनाया। उन्हीं दिनों पत्नी की असमय मौम ने रामलाल को भीतर से तोड़ दिया। काम कहीं कर रहे होते और ध्यान कहीं ओैर होता। भुलक्कड़ हो गए। घर का पता भूल जाते। अंतत: रामलाल को बैंक की नौकरी से वीआरएस लेना पड़ा। घर के किसी काम में मन न लगता। कई–कई दिन तक दाढ़ी बनाना भूले रहते। बहू और बेटे के लिए मददगार की जगह बोझ बन गए थे। बाजार से सब्जी और राशन तक लाने में असमर्थ। चलते–चलते उन्हें पता ही न चलता था और सड़कों को लांघते, गलियों से गुजरते हुए वे शहर के न जाने किस हिस्से में पहुँच जाते। जेब में खुद का पता लिखा कागज रखे और बमुश्किल वापिस घर पहुँचते या पहुँचाए जाते। बार–बार बहू और बेटे से डाँट खानी पड़ती।
आज बेटे के साथ घर से निकलते हैं, लेकिन रामलाल को याद नहीं आ रहा कि किस काम से निकले हैं। लगभग एक घंटा हो गया उनको इस वेटिंग हॉल में बैठे हुए। बेटा उन्हें यहाँ बैठाकर अंदर गया था, सो अभी लौटा नहीं।
अब इंतजार करना कठिन हो गया था। तभी एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला, ‘‘चलो!’’
रामलाल चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा। ऑफिसनुमा कमरे में बैठे एक व्यक्ति ने उन्हें बताया कि ‘‘एक भला–मानुष आपको इस वृद्धाश्रम में छोड़ गया है, आप उन्हें सड़क पर बेहोश मिले थे!’’
‘‘पर वो तो मेरा बेटा था और मैं बेहोश नहीं पड़ा मिला, मैं तो उसके साथ ही आया था!’’ रामलाल ने चकित होकर कहा।
अब चकित होने की बारी उस व्यक्ति की थी, जो वास्तव में उस वृद्धाश्रम का सुपरवाइजर था, ‘‘अच्छा! बताइए आपका पता क्या है? हम आपको वापिस पहुँचाए देते हैं!
रामलाल ने अपनी जेबें तलाशीं। संयोग से उनका पता लिखा एक कागज पर्स से मिल गया। रजिस्टर से मिलान करने पर पाया, रामलाल के बेटे ने उनका पता भी गलत लिखवाया था। मानसिक हालत खराब होने की स्थिति में भी रामलाल को सारी बातें समझ आ गई। शायद वे बोझ थे अपने बेटे पर, जिसने उन्हें इस तरह से , धोखे से वृद्धाश्रम में दाखिल करवाकर मुक्ति पाई थी।
रामलाल की बूढ़ी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। सुपरवाइजर के हाथों से अपने असली पते का कागज लेकर फाड़ते हुए धीमे स्वर में बोले, ‘‘छोडि़ए! टाप भूल जाइए कि इस कागज पर मेरा असली पता लिखा था! मुझे भी याद नहीं, मेरा कोई बेटा था या नहीं। आज से इस वृद्धाश्रम का पता ही मेरा असली पता है!’’
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