दीनानाथ अस्सी पार कर चुके थे। पिछले तीन–चार वर्षों से लकवाग्रस्त होने से पलंग कुछ ऐसा पकड़ा कि उठने का नाम नहीं लियां पुत्र और पुत्रवधू डॉक्टर थे। अत: तिमारदारी, सेवा–भाव में कोई कमी नहीं थी। इकलौता पोता स्कूल चला जाता था। घर दिनभर सूना रहता था। अत: अन्दर के बेडरूम से बाहर के वराण्डानुमा कमरे में उनका पलंग लगा दिया गया। एक छोटा टीवी. भी रखकर उन्हें रिमोट पकड़ा दिया। कोने में एक तोते का पिंजरा भी था। आते–जाते डॉक्टर पुत्र खुद उसके खाने–पीने का ध्यान रखता। उससे बात किया करता। पिंजरे में हाथ डालकर उसे प्यार करता। तोता भी इतना लाड़–दुलार पाकर जैसे निहाल हो जाता। पिंजरे के चारों ओर, ऊपर–नीचे उछलकूद कर खुशी से ‘टें...टें.....करता हुआ झूम उठता।
दीनानाथ चाहते थे पुत्र घड़ी–दो–घड़ी उनसे भी बतियाये, हाल–चाल पूछे। मगर हर दिन निराश ही होते। आज जब डॉक्टर लौटा तो रोज की तरह तोते के पिंजरे पास रुका। उससे बात की, दाना–पानी देखा और फुर्ती से भीतर चला गया। तोता पिंजरे में चहक रहा था। उनकी तरफ देखकर टें....टें....का शोर कर रहा था। दीनानाथ को सहन नहीं हुआ। वह भीतर ही भीतर क्रोध से, ईष्र्या से सुलग उठे। जैसे–तैसे उठे। दीवार का सहारा लेकर लड़खड़ाते हुए पिंजरे तक जा पहुँचे। कांपते हाथ से उन्होंने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया।
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