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लघुकथाएँ - देश -सुभाष नीरव
कोठे की औलाद
शहर में एक बड़े मोहल्ले में एक नया परिवार आकर रहने लगा। कुछ ही दिनों बाद दीवाली आई। लोगों ने देखा, उस घर में दीये जलाए जा रहे थे और मिठाइयाँ बाँटी जा रही थीं। बच्चे पटाखे–फुलझड़ियाँ छुड़ाने में मस्त थे। मोहल्ले के अधिकतर लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई।
कुछेक दिन बाद गुरु नानक दिवस पर वह पूरा परिवार, सिरों को ढककर पासवाले गुरुद्वारे की ओर बढ़ रहा था।
अब, कुछ लोगों के चेहरे पर रौनक थी और कुछ बुझ–से गए थे।
क्रिसमस आया तो उस घर में बच्चे क्रिसमस–ट्री बनाने में जुटे रहे। पूरे घर को रंगीन पन्नियों से सजा डाला।
अब एक–दो घरों के लोगों ने ही मोहल्ले में अपनी बिरादरी के बढ़ने पर खुशी मनाई।
एक दिन तो सभी अवाक् रह गए। उस परिवार का मुखिया बच्चों के संग नए वस्त्र पहनकर मस्जिद की ओर बढ़ रहा था। अलग–अलग सम्प्रदाय के कुछ लोग इकट्ठा हुए और उस घर में जा पहुँचे। घर के मुखिया ने आगे बढ़कर आगन्तुकों का स्वागत किया और आने का कारण पूछा।
‘‘माफ कीजिएगा, हम जानना चाहते हैं कि आपका धर्म क्या है?’’
‘‘मानव धर्म।’’ उसने तुरन्त मुस्कराते हुए जवाब दिया।
‘‘वह तो ठीक है। फिर भी सम्प्रदाय से....यानी हिंदू, मुसलमान या....।’’ एक व्यक्ति ने पूछा।
‘‘मैं केवल हिन्दुस्तानी हूँ। यहाँ के सभी धर्म,सभी पूजा–स्थल मेरे अपने हैं।’’
सब चुपचाप उस घर से बाहर निकल आए।
तभी उनमें से एक व्यक्ति ने मुँह बिचकाते हुए कहा, ‘‘जरूर साला कोठे की औलाद है।’’
‘‘यह तुम कैसे कह सकते हो?’’ दूसरे ने प्रश्न कियां
‘‘एक वही तो जगह है, जहाँ सभी धर्मों का बराबर स्वागत होता है।’’
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