महीने की शुरुआत थी। वेतन भी मिला था। पड़ोसी मित्र सुधीर के साथ मैं भी बाजार चल दिया। पहले हम एक हौजरी के शो रूम में कुछ कपड़े खरीदने लगे।
दुकानदार ने कपड़े पैक किए तो मैंने अपनी आदत के कारण उससे मोलभाव सही सही लगाने की बात की। सुधीर ने तभी मेरे समीप आकर फुसफुसाते हुए कहकर मुझे समझाया, ‘‘अरे यार, समझा कर....ऐसे बड़े शो रूम में बड़े–बड़े लोग आते हैं....ऐसे मोल भाव करने पर लोग मजाक उड़ाते हैं.....दस–बीस रुपये से क्या फर्क पड़ता है यार....’’ मैंने भी लगभग सहमत होते हुए चुप रह जाना ही बेहतर समझा।
वापस आते हुए फुटपाथ पर रेहड़ी वालों से हम कुछ खरीदने लगे। वहाँ भी मैंने आदतन मोल भाव किया। पास ही खरीद रहे सुधीर की ओर मैंने सहमते हुए देखा... सुधीर भी वहाँ अपने खरीदे सामान का मोल भाव कर रहा था।
वापसी में जाते हुए सुधीर ने हँसते हुए बताया कि उसने रेहड़ी वाले से पूरे दस रुपए आखिर कम करवा ही लिये थे।
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