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लघुकथाएँ - देश - डॉ॰ सतीश दुबे
वसीयत
घर के बाहर स्ट्रीट के रहवासियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोगों के समझ में नहीं आ रहा था, सात्विक जीवन जीने वाली सेल्वा ने आत्महत्या क्यों की? कारण जो भी रहे हों, पर यह जघन्य कार्य करने से पूर्व उसने युवावस्था की दहलीज पर खड़ी अपनी जन्मांध-बेटी के भविष्य का तो ख्याल रखना था,’ देखो बेचारी विलाप करते हुए अपनी अंधी-आँखों से कैसे आँसू बहाए जा रही है।’
‘जितने मुँह उतनी बातें माहौल में, तहकीकात के लिए आई पुलिस के डंडों जूतों की आवाज से एकदम जिज्ञासा भरी मुर्दनी छा गई। रिश्तेदारों और परिचितों से बयान के बाद हुई खोजबीन में पुलिस को सेल्वा की हस्तलिपि में एक पत्र मिला ,जिसमें लिखा था-‘बहुत इच्छा थी कि, मेरी बेटी की आँखों में ज्योति आ जाए ताकि वह संसार देख सके, मैंने अपनी क्षमता से अधिक इस हेतु प्रयास भी किए किन्तु विशेषज्ञों का कहना रहा कि दान में प्राप्त इंसानी-आँखों के प्रत्यारोपण से ही दृष्टि संभव है। इस कोशिश में असफल रहने पर, अपनी आँखों की वसीयत बेटी इल्वा के नाम करके मैं अपना जीवन प्रभु को सौंप रही हूँ... आमीन।’
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