‘‘गुब्बारा लूँगा बापू।’’ गुब्बारे वालों को देखकर बच्चा मचला। ‘‘नहीं बेटा, गुब्बारा फूट जाएगा।’’ पिता ने कहा। आसमान में पतंगे उड़ रही थी। बच्चे का ध्यान उधर गया तो बोला, ‘‘बापू पतंग...।’’ ‘‘पतंग फट जायेगा बेटा।’’ पिता ने टाल दिया। खिलौने वाला गली में अया। फिर पैसों की मांग हुई। ‘‘खिलौने टूट जाएँगे। यों पैसा खराब नहीं किया करते।’’ पिता ने समझाया और बालक का हाथ पकड़ कर उसका मन बहलाने के लिए सामने के मैदान में पुराने किले की ओर ले चला।
बालक जानता था कि उसके बापू के पास पैसा है। हर रोज जब वह मेहनत-मजदूरी करके लौटता है तब जरूर ही कुछ न कुछ पैसा लाकर संदूक में डालता है। फिर उसमें से एक कौड़ी भी बाहर नहीं निकालता। न ही खुद कुछ खाता-पहनता है। न ही उसके कपड़े-लत्तों और खिलौनों पर खर्च करता है। आखिर किस काम आएगा यह पैसा! ‘इतना पैसा इकट्ठा करके तुम क्या करोगे?’ उसने पूछा। पिता के थके-मांदे चेहरे पर खुशी की लहर उभरी। संभवतः वह इसी प्रतीक्षा में था कि कभी कोई उससे यह प्रश्न पूछे। आशा व गर्व में भर कर उसने कहा, ‘बेटा, तेरे दादा-परदादा ने अपनी सारी जिन्दगी एक झोंपड़े तले गुजार दी। मेरे जीवन का एक बड़ा हिस्सा टूटी झोंपड़ी में बीत गया है। पैसा इकट्ठा करके मैं तेरे लिए....मेरे राजा बेटे के लिए एक सुन्दर-सा-पक्का मकान बनाऊँगा।’
बच्चे की दृष्टि पुराने किले की एक विशाल इमारत के खंडहर पर टिकी थी। एक क्षण उसने सोचा। फिर बोला, ‘मकान कभी नहीं टूटेगा बापू?’
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