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प्रवंचना
रात करीब ग्यारह बजे मनोज का फोन आया। उसने कहा, ‘‘सॉरी टॅ डिस्टर्ब यू सो लेट आनंद जी। मैं जानना चाहता था कि क्या आपकी भतीजी की कहींबात बनी?’’ मैंने ही मनोज को अपनी भतीजी के लिए कोई अच्छा-सा लड़का बताने के लिए कहा था। मनोज को याद था और उसने इसी बारे में जानने के लिए इतनी रात को फोन किया था। मैंने उसे बताया कि मेरी भतीजी का रिश्ता अभी तक तै नहीं हुआ है। मनोज ने कहा कि उसकी नजर में एक बहुत अच्छा लड़का है। उसने एक-दो दिन के अंदर-अंदर उस लड़के का बायोडाटा भिजवाने की बात कही।
फिर मनोज ने बताया कि इस बार ‘‘वैल्दी वर्ल्ड’’ में वो मेरे दो लेख एकसाथ प्रकाषित कर रहा है। अभी संपादकीय नहीं लिखा गया है वरना पत्रिका अभी तक आ चुकी होती। फिर मुझसे कहने लगा, ‘‘आपके पास समय हो तो आप लिख दो।’’ मैंने असमर्थता व्यक्त की और साथ ही कहा कि मैं भला दूसरे के लिए क्यों लिखूँ? ‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं। कोई न कोई तो लिखता ही है। आप जरा अच्छा लिख देंगे इसलिए आपसे कह रहा हूँ!’’ मनोज ने कहा। ‘‘कल दोपहर तक लिख लो, मैं खुद आकर ले जाऊँगा और आपको लड़के का बायोडाटा भी दे जाऊँगा,’’ मनोज ने आगे कहा। ‘‘मैं निरुत्तर और मौन था। मेरे मौन का अर्थ समझकर मनोज ने कहा, ‘‘ठीक है आनंद जी! कल दोपहर को मिलते हैं। नमस्कार ! शुभरात्रि!’
मैं सारी रात किताबें उलटता-पलटता रहा तब कहीं जाकर सुबह के साढ़े चार-पाँच बजे तक ‘कुछ’ लिख पाया। सुबह देर से उठा। चाय पीने के लिए कप हाथ में उठाया ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। मनोज ही था। अंद आकर मनोज मेरे लेखों की तारीफ के पुल बाँधने लगा। मैंने रात का लिखा हुआ उसके हवाले कर दिया और प्रश्नसूचक दृष्टि से मनोज की ओर देखा। ‘‘सॉरी आनंद जी! उस लड़के का रिष्ता तो पक्का हो चुका। कल ही हुआ है। एक और लड़का है मेरी नजर में, उससे भी अच्छा है। उसका बायोडाटा भिजवाता हूँ।’’ यह कहकर मनोज खड़ा हो गया। मैंने कहा, बैठो, चाय तो पीओ मनोज! ‘‘थैक्यू आनंद जी, मैं नाष्ता करके ही घर से निकलता हूँ और संपादक जी बाहर गाड़ी में बैठे हैं, हम जरा जल्दी में हैं।’’ इतना कहकर मनोज मेरे उठने से पहले ही खट-खट करता हुआ दरवाजे से बाहर हो गया।
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