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दीवारें
‘ससरी’ काल बापूजी! और क्या हाल है,’ कष्मीरे ने घर के दरवाजे के सामने गली में चारपाई पर बैठे, बापू को बुलाया और साथ ही पूछा, ‘जस्सी घर पर ही है?’
‘हाँ बेटा! और तू सुना राजी है सब।’
‘हाँ बापूजी! मेहर है वाहेगुरु की! तुम्हें शहरी गली में, पेड़ के नीचे बैठा देख, गाँव की याद आ गई। शहरी तो बस घरों में घुसे रहते हैं। आया बापू, जस्सी से मिलकर,’ कहता, वह अन्दर चला गया।
जस्सी ने कश्मीर के आने की आवाज सुन ली थी और कमरे से बाहर आ गया और कष्मीर को गले मिलता, अन्दर ले गया।
अपनी बातें खत्म कर, कश्मीर ने पूछा, ‘‘और बापूजी कब के आए हैं?’’
‘तबीयत कुछ खराब थी, मैं ले आया कि चलो शहर किसी अच्छे डाक्टर को दिखा देंगे। पर इन बुजुर्गों का हिसाब अलग ही होता है। कार में बैठा कर ले जा तो सकते हैं, टैस्ट करवा सकते हैं, पर दवाई-बूटी इन्होंने मर्जी से खानी होती है।’ जस्सी ने अपनी बात बताई।
‘चलो तूने चैकअप करवा दिया ना, अपना फर्ज तो यही है बस।
‘वह तो ठीक है, अब तूने देख लिया ना, घर के अन्दर कमरों में एसी ले हैं, कूलर-पंखे सब हैं। पर नहीं! बाहर ही बैठना है, वहीं लेटना हैं। बुरा लगता है ना। पर समझते ही नहीं।’
‘तूने समझाया भी बापू को,’ जस्सी ने बात का रुख बदलते हुए कहा।
‘बहुत माथा-पच्ची करी।’
‘चल! सभी को ही पता होता है, इन बुजुर्गों की आदतों का’, कह वह उठ खड़ा हुआ।
बहर आ, एक मिनट बापू के पास बैठ गया और उसी अंदाज में बोला, ‘यह बापू तूने तो शहर का दृश्य ही बदल दिया।’
‘हाँ बेटा! घर में पंखे पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और भी बेटा, आता-जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अन्दर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।’
‘यह तो ठीक है बापू! जस्सी कह रहा था, सभी कमरों में टी.वी. लगा है। वहाँ भी दिल बहल जाता है।’ जस्सी ने अपनी राय रखो।
‘ले, ये भी सुन ले। मैं तो उसे भी दीवार ही कहता हूँ। अब पूछ क्यों? बेटा! कोई उसके साथ अपने दिल की बात तो नहीं बाट सकता।’
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