‘‘माँ! मैं यहाँ ठीक से पहुँच गया, ऑफिस भी ज्वाइन कर लिया है।’’
‘‘अच्छा बेटा।’’
‘‘मम्मा! तुम मेरी फिक्र न करना, अपना और पापा का खयाल रखना।’’
‘‘.... हाँ बेटा।’’
‘‘बाय बेटा!’’
फोन कटने पर मालती ने भारी मन से रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया और सोफे पर बैठ गई।
‘‘क्या हुआ?’’ उनके पति मनोहरलाल ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं.....’’
थोड़ी देर शान्त रहकर मालती ने फिर कहा-
‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि आज मैं खुश होऊँ या जी भरकर रो लूँ।’’
‘‘ऐसा क्यों सोचती हो।’’ मनोहरलाल ने फिर पूछा।
‘‘क्यों न सोचूँ, एक-एककर हमारे तीनों बेटे हमसे दूर हो गए, और हम दोनों रह गए एकदम अकेले। क्या इसी दिन के लिए हमने उन्हें इतना पढ़ाया-लिखाया काबिल बनाया था।’’
‘‘तुम पागल हो मालती, अरे हमें गर्व करना चाहिए आज के दौर में भी हमारे तीनों बेटे इतनी अच्छी जगह सैटल हो गए.....’’
‘‘रहने दीजिए?’’ मालती ने बीच में ही कहा, ‘‘मुझे मालूम है कि आप ढाढ़स देने के लिए ये सब समझा रहे हैं वर्ना क्या आपको नहीं खलता ये अकेलापन।’’
‘‘ऐसा मत कहो मालती, इस अकेलेपन की चादर बुनने के लिए हमने अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी, खुद इतने कश्ट सहे, भूखे रह लिए लेकिन बच्चों की पढ़ाई और सुख-सुविधा में कभी कोई कमी नहीं आने दी। तुमने कितनी मन्नतें माँगीं, व्रत रखे तब जाकर हमारे बच्चे आज जीवन का सुख भोग रहे हैं। इस अकेलेपन में ही हमारे जीवन का सच्चा सुख है मालती, सच्चा सुख!’’
-0-
|