कुल्हाड़ा चलाते–चलाते आदी ने माथे पर चुहचुहा आया पसीना पोंछा। थके शरीर को विश्राम देने की इच्छा से वह समीप के एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। थोड़ी देर में उसे सुकून का एहसास हुआ। अब वह फिर तरोताजा था।
आदमी फिर से उठा और कुल्हाड़ा लेकर नई ताकत के साथ इस वृक्ष पर भी टूट पड़ा। वृक्ष की जड़ पर उसने आखिरी वार किया उसी के साथ यह वृक्ष भी धराशायी हो गया। लेकिन इतनी देर में आदमी फिर थक गया था। उसने माथे पर चुहचुहा पसीना पोंछा और चिलमिलाती धूप से बचाव के लिए आस–पास नजर दौड़ाई।
मगर अफसोस! यहाँ से वहाँ तक ठूँठ ही ठूँठ थे। और उसका अन्तिम आश्रमदाता भी उसी के कुल्हाड़े से धराशायी हो चुका था।
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