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लघुकथाएँ - देश - नीलम राकेश
बन्द
झुग्गी–झोपड़ी में शिक्षा का अलग जगाने का हमारा मिशन पूरे जोरों पर था। नन्हें मुन्नों को देने के लिए कुछ बिस्कुट और चाक–स्लेट लेकर मैं घर से निकल पड़ा। घर से निकलते हुए मेरे अधरों पर प्रसन्नता की स्मित खिंची हुई थी। बस ही ऐसी थी। कल मेरे अग्रज द्वारा आयोजित बन्द पूरी तरफ सफल रहा था। होता भी क्यों नहीं आखिर वे जनप्रिय नेता थे। आज के सारे अखबार इसी खबर से रंगे हुए थे। घर में सुबह से यही चर्चा थी।
झुग्गी–झोपड़ी के अपने क्षेत्र में पहुँचते ही नन्हें ननकू पर मेरी नजर ठहर गई जो टुकुर–टुकुर सूनी सड़क को निहार रहा था।
‘‘अरे ननकू वहाँ क्या देख रहे थे? चलो, पढ़ाई का समय हो गया है।’’
‘‘हमका भूख लागल बा’’ बिना नजर घुमाए ननकू बोला।
‘‘आधा दिन बीत गया, तुमने अभी कुछ खाया नहीं?’’ आश्चर्य भरे स्वर में उतर आया।
ननकू के स्थान पर पास बैठे एक बुजुर्ग बोले, ‘‘बच्चन का पढ़ावे का काम सोझे बा बिटवा, जिन्दगी के पढ़ेबा बड़ों गूढ़ बा।’’
‘‘मैं समझा नहीं बाबा।’’
‘‘काहे बूझोगे बचवा? पर हमार लडि़कन का बन्द का मतलब बताए का न पड़ी। ऊ तौ ‘‘बन्द’’ के नामे से जान जात हैं कि घर का चूल्हा बन्द।’’
मैं विफारित नजरगें से ननकू को देखने लगा। जो हमारी बातों से अनजान भूखे पेट और आशा भरी नजरों से अपलक सड़क को निहार रहा था। जहाँ से उसका बापू रोटी लेकर आने वाला था।
बन्द का यह अर्थ मैंने आज माना था।
 
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