मैं अपना बिल लेकर पहुँचा तो वे मजदूरों की छुट्टी करके उनका हिसाब निपटा रहे थे आखिरी मजदूर से उनकी काफी बहस हुई। वह अब तक की पाँच दिहाडि़यों के पूरे पैसे माँग रहा था, जबकि वे एक दिहाड़ी के पैसे रोके रखने पर अटल थे। मजदूर का तर्क था कि उसे घर पैसे भेजने हैं। चिट्ठी आई है, बच्चा बीमार है। अंत में वह चार दिहाड़ी के पैसे लेकर चला गया। मेरा बिल देखते हुए बोले–तुम इन लोगों को नहीं जानते। इनका कोई दीन–ईमान नहीं है। पूरे पैसे दे देता तो यह कल शक्ल न दिखाता। फिर नया मजदूर ढूँढ़ों, उससे माथा–पच्ची नए सिरे से.....इसीलिए। इतने में देखा कि वही मजदूर लौटा हुआ आ रहा है। आकर बोला–बाबूजी, आपने फालतू रकम दे दी। दस के बजाय पचास का नोट। हम राशन वाले को पैसे देने लगे तो देखा, लीजिए। उन्होंने फुर्ती से उसके हाथ से नोट झपट लिया और दस का नोट उसे देते हुए बोल–अरे रामदीन, तू अपना खास आदमी है। हमसे बेईमानी कैसे कर सकता है, तो हमने भी ध्यान से नहीं गिना। याद रख, बरकत मेहनत की कमाई से होती है। ईमान खोकर....रामदीन चला गया तो वे बोले–मैंने कहा न कि तुम इन लोगों को नहीं जानते । निरे जाहिल हैं। भोंदू और उजबक। हाथ आई लक्ष्मी को दुत्कारने का कोई तुक है भला, इसीलिए ये लोग फड़तूस रहते हैं हमेशा, ये कभी नहीं पनपेंगे।
-0- |