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बंधन

आज सगाई का दिन है। होने वाले दोनों समधी घनिष्ठ मित्र हैं। उनकी मित्रता को सारा शहर जानता है।
“मित्रता हो तो इन जैसी, नहीं तो बिन मित्र ही भले।” कोई कहता।
“मित्र तो लगते ही नहीं, यूँ लगता है जैसे सगे भाई हों,” कोई अन्य कहता, “वे सदा गले लग कर मिलते हैं।”
पिछले दिनों जब ये मित्र मिले तो एक ने कहा, “यार, क्यों न हम अपनी मित्रता को रिश्ते में बदल लें।”
“तुमने तो मेरे दिल की बात कह दी।” दूसरे ने खुश होकर कहा था। और फिर रिश्ते की बात पक्की हो गई।
“आज उन्होंने आना है और आप अभी तक उठे ही नहीं।” बिस्तर पर लेटे पति से पहले मित्र की पत्नी ने कहा।
“फिर क्या हुआ, मेरा मित्र ही तो है!” वह आँखों को मसलता हुआ उठ कर बैठ गया।
“पहले बात और थी, अब हम लड़की वाले हैं।” पत्नी ने सिर पर लिया दुपट्टा ठीक करते हुए कहा।
“ठीक है, मैं तैयार होता हूँ, तुम बेटे को बाज़ार से सामान लाने के लिए भेजो।”
“यह क्या पहन लिया, कोई ढंग का सूट पहनो।” उधर दूसरे की पत्नी ने अपनी रेश्मी साड़ी का पल्ला लहराते हुए पति से कहा।
“वे कौनसा हमें भूले हैं, सब जानते हैं, फिर सूट का क्या है।”
“अब पहले वाली बात नहीं रही। हम लड़के वाले हैं।”
“ठीक है, ठीक है।” वह मूँछों को उमेठता हुआ बोला।
शगुन-व्यवहार की रस्मों के पश्चात् विदा होते वक्त दोनों मित्र गले मिले। दोनों को लगा कि उनकी मिलनी(झफ्फी) में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही।
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