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लघुकथाएँ - देश - प्रियंका गुप्ता





भेड़िए


माँ अक्सर अपने नन्हें-से मेमने को समझाती...घर के बाहर दूर तक अकेले न जाना...। घना, अँधेरा...बिल्कुल काला जंगल...जिसमें खूँख़्वार जंगली जानवर बसते हैं...। बाकी तो तब भी ठीक हैं...शायद बख़्श भी दें, पर भेड़िया वो जीव है, जिससे उसे सबसे ज़्यादा होशियार रहना है...। अपनी आँख-नाक-कान सब खुले रखने हैं। माँ जब काम पर जाए तो दरवाज़ा बन्द करके घर के अन्दर ही रहना है...। मेहमान का भी भरोसा नहीं करना है बिल्कुल...। दूर से भी कहीं भेड़िया छुपे होने का शक़ हो, तो तुरन्त भागकर घर में घुसकर दरवाज़े-खिड़कियाँ मजबूती से बन्द कर लेने हैं...।
    माँ ने दुनिया देखी थी, जंगल देखा था...वो सब जानती थी...। मेमना माँ की सब बात मानता था...। ये बात भी मानी...। इसलिए अब वह अकेले कहीं नहीं जाता था...| किसी अजनबी तो दूर, जानने वाले से भी ज़्यादा बात नहीं करता था...। माँ के जाते ही मजबूती से घर के सब खिड़की-दरवाज़े बन्द कर लेता था।
    एक दिन माँ जब काम से लौटी, मेमना कहीं नहीं मिला...। मिले, तो बस्स खून के कुछ कतरे...। माँ नहीं समझ पा रही थी कि उसके इतने आज्ञाकारी बच्चे का शिकार आखिर हुआ कैसे...? समझ तो शिकार होने तक मेमना भी नहीं पाया था...।     माँ उसे घर के भेड़िए के बारे में बताना जो भूल गई थी...।


 
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